पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१९७

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१५४
बिहारी-रत्नाकर


१५४ बिहारी-रत्नाकर | ( अवतरण ) --नायक ने गुड़ा उड़ाई है, जिसकी छाया नायिका के आँगन में पड़ी है। उसके स्पर्श मैं नायक के स्पर्श का ही सुख मान कर नायिका जहाँ जहाँ वह जाती है, वहाँ वहाँ दौड़ कर पहुँचती है। सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-[ देखो, ] लाल की गुडी उड़ती देख कर [यह ] अंगना [ उसकी ] छबीली परछाँही छूती हुई [ अपने ] आँगन में बावली सी दौड़ी फिरत है॥ 'बैरी ख’ इसद्धिए कहा कि अनजान लोग उसका दौदना विना किसी उद्देश्य ही के समझते हैं । ‘छवीली आँg' इस अभिप्राय से कहा कि नायिका को वह परछाँही, प्रेमाधिक्य के कारण, बदी मनोहर लगती है। ऊँचें चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेते। झलकित इग, मुलकित बदनु, तनु पुलकित किहिँ हेतु ॥ ३७४ ॥ | ( अवतरण )-नायक अपनी अटारी पर खड़ा गिरहबाज़ कबूतर उड़ा रहा है। नायिका नीचे से उसको देखता है, जिससे उसे सात्विक भाव उत्पन्न होता है। इतने ही मैं सखी को अपनी ओर देखते देख कर वह, नायक के प्रति अपना अनुराग छिपाने के निमित्त, दृष्टि को और ऊँची कर के कलाबा, खाते हुए कबूतर के प्रशंसा करने लगती है, जिसमें सखी जाने कि वह, ऊपर की ओर मुंह किए, कबूतर ही को देख रही है। पर चतुर सखा :खिक से उसका अनुराग बक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-ऊपर की ओर देख कर सराहा । तो ] गिरह लेता हुआ ( कलाबाज़ी खाता हुआ ) कबूतर जाता है, [ पर यह तो बतला कि तेरे ] दृग झलकित ( प्रसन्नता की झलक से युक्त ), मुख मुलकित ( भावविशेष-सूचक मुसकिराहट से युक्त)[ तथा ] तन ( शरीर ) पुलकित ( रोमांचित ) किस हेतु हैं ( हो रहे हैं )[अर्थात् तेरी चेष्टाओं से तो बास्तव में तेरा अटारी पर खड़े हुए नायक को देखना और तद्विषयक अनुराग सक्षित होता है; तु वृथा क्यों छिपाती है ] ॥ लागत कुटिल कटाच्छ-सर क्यों न होहिं बेहाल । कढ़त जि हियहि दुसाल करि, तऊ रहत नटसाल ।। ३७५ ॥ जि-यह शन्द ‘जो' के बहुवचन रूप 'जे' का लघु रूप है ॥ दुसाल = दो टुकड़े, दोनों ओर छिद्र वाला, आरपार । इसी शब्द का 'दुसार’ रूप ४४३वे दोहे में प्रयुक्त हुआ हैं ॥ नटसाल ( नष्ट शल्य ) =बाण का वह भाग, जो टूट कर शरीर के भीतर रह जाता और पीड़ा दिया करता है। ( अवतरण )-सखी अथवा दूती नायिका से, उसके नत्र की प्रशंसा करती हुई, माघ । व्यवस्था विदित करती है १. चंदं ( २ ) । २. लत ( १, २, ३, ५ ) । ३. झलक दृगनि (२) । ४. हेत ( २, ३, ५)। ५. कढत जहियें ( २ ), काढत जियहिँ ( ३, ५ ), कादत हियो (४)।