पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६७
बिहारी-रत्नाकर

________________

बिहारी-रत्नाकर पड़ता है। हमने यहाँ पहिली पुस्तक का पाठ ज्य का त्यौं रख दिया है, और पाठांतर पाद-टिप्पणी में दे दिए हैं। यह पाठ विशेष संबद्ध ज्ञात होता है । क्यौं बसियै, क्यौं निषहियै, नीति ने-पुर नाँहि । लगालगी लोइन करें, नाहक मन बँधि जहि ॥ ४०७॥ लगालगी-यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका पहिला अर्थ देखा-देख़, लगावट, पूराघूरी है, और दूसरा अर्थ लाग, टाँज, चोरी का उपद्रव ॥ बँधि जाँहि = बंध जाते हैं । यह क्रिया भी यहाँ श्लिष्ट है। मन विषय के पक्ष में इसका अर्थ होगा अनुरक्त हो जाते हैं , शोर मन में अनुक्तविषयी अन्य नगर निवासी के पक्ष में बाँध लिए जाते हैं, अर्थात् दंड के निमित्त बंधन में पड़ते हैं । ( अवतरण )-पूर्वानुराग में नायिका अथवा नायक का वचन सखी अथवा सखा से ( अर्थ ) -नेह( स्नेह )-रूपी पुर में नीति (म्याय-पूर्वक शासन ) नहीं है। [यहाँ] कैसे वसा जाय, [ तथा ] कैसे निर्वाह किया जाय । [ यहाँ की अनीति तो देखो कि] लगालगी [ तो ] लोचन [ रूपी चोर ] करते हैं, और ] नाहक (विना अपराध ही के) बँध मन [ रूपी अन्य भलेमाउस ] जाते हैं ॥ अन्याय यह है कि जो लोचन-रूपी चोर लालगी करते हैं, वे तो नहीं बाँधे जाते, बाँधे जाते हैं मन-रूपी निरपराध भत्तेमानुस । ललन-चलनु सुनि चुपु रही, बोली आपु न ईठि। राख्यौ गहि गर्दै गर्दै मनी गलगली डीठि ॥ ४०८॥ | ईठि = इष्ट कर के, प्रेम-पूर्वक ।। गाढ़े = गाढ़ता से, सर्वथा, भली भांति ।। गरै = गले में, अर्थात् गले के स्थान में ॥ गलगली = असु से भीगी हुई । ( अवतरण )--नायक ने नायिका से अपने परदेश चलने का समाचार कहा। कहते समय नायक की आँखें प्रेम से उबडबा आईं। यह देख कर प्रवरस्थरपतिका नायिका ने ससको चखना सुन तो लिया, पर स्वयं वह कुछ प्रेम-पूर्वक न बोली ; क्योंकि उसने सोचा कि एक तो नायक को पाप h परवेश-गमन को दुःख ऐसा व्याप्त हो रहा है कि उसकी आँखें उपदबाई हुई हैं, दूसरे मावि में भी अपना विरह-दुःख, प्रेम जता कर, कहने लगेंगी, तो उसको महान् कष्ट होगा । नायिका के इसी सूप रहने पर कोई सखा किसी अन्य सखी से, उस्प्रेक्षा कर के, कहती है कि मानो नाक की गलगली ती ने उसके गले में मार्ग रोक लिया, जिससे वह बोल न सकी ( अर्थ )-खलन ( प्रियतम ) का चलना ( परदेश-गमन ) [ उनके मुख से] सुन कर [ वह प्रवत्स्यत्पतिका नायिका ] चुप रह गई, [ और ] स्वयं [ कुछ अपने चिर-ब १. नाही ( ५ ) । २. जाहिँ ( ५ ) । ३. चुप (४, ५) । ४. गादै गहि राख्यौ गरौ ( २ ), राख्यौ मन गादे गरे (४)।