पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७५
बिहारी-रत्नाकर

________________

बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे गोपाल ! अपनी [ बुरी ] करनियों से सकुचे [ अपनी ] इस चाल ( कृपा की रीति ) से, [ अर्थात् ] मुझ ऐसे भी नित्य सन्मुख रह कर, [ अप और भी अधिक ] क्यों सकुचाते ( लाजित करते ) हैं । मोहिँ तुम्हें बड़ी बहेस, को जीतै, जदुराज । अपने अपनँ बिरद की दुहुँ निबाहन लाज ।। ४२७ ॥ वहस=विवाद । यह अरबी भाषा का शब्द है ।। बिरद ( विरुद )- जिस क्रिया से किसी मनुष्य का नाम विख्यात हो जाता है, उस क्रिया से बना हुआ विशेषण उस मनुष्य का विरुद कहलाता है। जैसे ईश्वर पतिता” के पावन करने में विख्यात होने के कारण पतित-पावन' कहलाते हैं । विरुद शब्द प्रायः प्रशंसात्मक विशेषण ही के लिए प्रयुक्त होता है। किंतु इस दोहे में प्रशंसात्मक तथा र्निदात्मक, दोनों ही प्रकारों के विशेषण के निमित्त प्रयुक्त हुआ है। ( अवतरण )-कोई श्रीकृष्णचंद्र का उपासक अपनी भावना के अनुसार उनको राजा समझ कर बढी चातुरी से, इस दोहे के द्वारा, उनको आन दिलाता है, जिसमें वे ताव मैं आ कर उसे चटपट तार दें। राजा लोग स्वभावतः शीघ्र ही ताव मैं आ जाते हैं और करनी न करनी, सब कुछ उस ताव में कर डालते हैं। इसीलिए यहाँ ‘जदुराज' नाम प्रयुक्त किया गया है| ( अर्थ )--हे यदुराज ! मुझसे तुमसे ‘बहस' बढ़ी है, [ देखें तो ] कौन जीतता है। अपने अपने विरुद की लजा का निर्वाह दोनों ही को करना है [ इधर मेरा नाम तो पतित है, सो मैं तो पतिते की जे करनी होती है, उसको, अपने नाम की लज्जा रखने के निमित्त, छोड़ने का नहीं । उधर तुम्हारा नाम पतित-पावन है, सो तुम भी, अपने नाम का निर्वाह करने के निमित्त, मेरे पातकों को नष्ट कर के मुझे पावन करते ही लोगे। अतएव अव देखना यही है कि अंत में में पाप करते करते थक जाता हैं, और तुम मुझे पावन कर ही के छोड़ते हो, अथवा तुम पावन करते करते मेरे पातकों से घबरा कर हार जाते हो, और अपना ‘पतितपावन' विश्व छोड़ देते हो ] ॥ दूरि भजत प्रभु पीठि ६ गुन-विस्तारन-काल । प्रगटत निर्गुन निकट हि चंग-रंग भूपाल ॥ ४२८ ॥ पीठि ६ = मुहँ फेर कर । स्मरण रहे कि पतंग का वह पाश्र्व, मिस श्रोर बाँस की कमाची लगी रहती है, उसका पेट अथवा छाती कहलाता है, और दूसरा पाश्र्व पीठ । गुट्टी के उड़ाने में उसकी पीठ उड़ाने वाले की ओर रहती है, और भागने वाले की पीठ भी जिससे वह भागता है, उसकी शोर रहती है । इसी सादृश्य से पीठि दै' क्रिया-विशेषण का प्रयोग कवि ने किया है । गुन ( गुण )-यह शव्द यहाँ श्लिष्ट है । पतंग के पक्ष में इसका अर्थ डोरा, और ईश्वर के पक्ष में इसका अर्थ प्रकृति-भाव, है । बिस्तारन = बढ़ाना । पतंगपक्ष में शुन-विस्तारन' का अर्थ डोरे का बढ़ाना, और ईश्वर पक्ष में इसका अर्थ उसके गुणों का वैभव वर्णन करना होता है। निर्गुन ( निर्गुण ) -पतंग-पक्ष में इसका अर्थ डोरा-रहित, और ईश्वर-पक्ष में इसका अर्थ १. तुमहिं ( ३, ५) । २. वहसि ( ३, ४, ५ ) । ३. है ( २ ) ।