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बिहारी-रत्नाकर


दाहिनी ओर कारी लगा दी जाती थी, तो वह अंक पए का ज्ञापक हो जाता था ; जैसे, 19 दि के बाठ रुपया समझा जाता था, और ऐसा ही अब भी समझा जाता है। संप्रति दाम के लिखने की प्रथा ठती जाती है, और यदि लिषा भी जाता है, तो गधा अंक की बाई ओर बारी गा दी जाती है। जैसे, आठ दःम को बहुधा लाग )८ तिखते हैं । तो मी केवर अंक तिर देने की परिपाटी अनी सर्वथा र म हो गई है। अब भी कमी कभी अधेने के स्थान पर १२॥ लिखा देखने में आता है। | ( अवतरण )---नायिका के मुन्न पर पान की अव के खटक पाने से उपकी शोभा त छ । अली नायक ॥ ४गान उस ओर आकर्शित कर के अती है| ( अर्थ )--[ देम्वा, उसके ] मुख पर कुटिल अतक के छूट पड़ने से [ श्यामता तथा गुराई का मिलान होने के कारण उसकी गुराई का ] उदोतु ( उद्योत, रगाव ) इतना बड़ गया है [ कि ] जिस कार वंक ( रेट्री ) बकारी के देते [डी] दाम पवारो जाता है। राम तथा रूपए के मूत्र में बड़ा अंतर है । पर राम की दाहिनी ओर केयर एंड पारी बगा ने से इसे राम का मूथ अपया हो जाता है । सभी रती है कि इसी प्रकार मुर पर ही पर के ना जाने से उसकी शोभा बहुत बड़ जाती है। रहि न सक्यौ, कसु करि रह्यौ', बस करि जीनौ मार । भेदि दुसार कियौ हियो तन-दुति, भेदै सार ॥ ५४३ ॥ फस =खींचातानी, नक्ष, कान् । भेवि = छेद कर, काट कर ॥ दुसार = दो को, दोन ब्रो भिद्र वाडा, आरपार । इसी शन्द का 'दुसाल रुप विहारी ने १७५३ दोहे में प्रयुक्त किया है। तभ-तिशरीर की शोमा ॥ भेद = वेदती है, श्रीका देती है ॥ सार = राज्य । यहाँ असा अर्थ यह वस्तु है, जो चाय में रह जाने पर पड़ा देती है । इस दोहे में इसे शन्द का सीलिंग-प्रयोग हुआ है। | ( अनतरण ):- नायक नाथि की भी हेल कर मोहित हो गया है, और उसकी गए । उसके मिखने की अभिजाया मैं विकल है । वह अपनी ही दशा असकी सूची से र मिया है प्रार्थना भ्यंत्रित करता है ( अर्थ ). [ मैं बहुत ]कस ( क्रावू ) कर के रडा, पर] रह न सका (मेरा कु स न बला), और मार (कामदेव ) ने [ {झे अपने वश में कर [ ही ] लिया, [क्योंकि इसके] शरीर की शोभा ने भेद कर ( छेद कर ) इदय को आरपार कर दिया, [ और अब इसकी शोभा का] शल्य (अथात् दृश्य में रह गया हुआ स्मरण ) भेदता ( पौड़ा देता ) ।।। इस दोहे । अयं अन्य टीकाकारों ने और हरी और किया है, पर इसके उत्तरारे । १० हे के रसराई का भाव मिलने से हमारा किया इभा अर्थ ठीक प्रतीत होता है। बल-बड़ई लु केरि थके, कटे न कुवत-ठार । अलिया उर झालरी खरी प्रेम-तरु-र । ४४४ ॥ कुवत = निंदा ।। लाल (असवाल ) = क्यारी ॥ झालरी = पुष्प, पल्लव आदि से संपन्न हुई । १. हिया ( ४ ) । २. दुसाल ( ३, ५ ) । ३. कै ( ३, ५ ) ।