पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२३

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फ़ारसी में बहुत अच्छा अभ्यास है । सन् १८९३ में साहित्य-सुधानिधि नामक मासिक पत्र निकाला था । उसे ये और बाबू देवकीनंदन (उपन्यास-लहरी के वर्तमान संपादक ) खत्री मिल के संपादित करते थे । इनका कविता का नाम रत्नाकर है ॥ “इनने और भी कई ग्रंथ रचे हैं। उनमें समालोचनादर्श, हिंडोला, घनाक्षरी-नियमरत्नाकर आदि कई एक छप चुके हैं । ये अग्रवाल बनिए हैं और काशी में शिवाले घाट पर रहते हैं ॥ उस समय, यथेष्ट प्राचीन प्रतियों की प्राप्ति के कारण, पाठ-शुद्धि का कार्य, सम्यक रूप से, न हो सका। फिर हम कुछ सांसारिक झंझटों में ऐसे फँसे कि साहित्यिक संसार से बहिर्गत ही हो गए, और उक्त कार्य के संपादन का ध्यान भी जाता रहा । सन् १९१७ के जाड़ों में संयोग-वश, महीने डेढ़ महीने, हमें लखनऊ रहना पड़ा। हमारे प्रिय मित्र बाबू श्यामसुंदरदास जी बी० ए०, उस समय, वहाँ के कालीचरण-हाई-स्कूल में हेडमास्टर थे । अतः उनसे मिलने का प्रायः संयोग होता था। उन्हें सतसई के विषय में हमारे संकल्प तथा टिप्पणियों का वृत्तांत विदित था, अतएव उन्होंने हमसे उक्त टीका के समाप्त करने का इतने प्रेम-पूरित हठ के साथ अनुरोध किया कि अंत को हमें इस कार्य के संपादन में तत्पर होना ही पड़ा। लखनऊ से लौट कर हमने जो अपने सतसईसंबंधी ग्रंथों तथा लेखों को एकत्र किया, तो विदित हुआ कि उक्त पाँच टीकाओं में से सरदार कविकृत टीका तो की ने सर्वथा नष्ट ही कर दी है, और भावार्थ-टिप्पणियों वाली पुस्तक का भी पता नहीं है। इसलिए पुनः भावार्थ सोचने तथा लिखने की आवश्यकता पड़ी, और यह धारणा हुई कि पहले यथासंभव पाठ-शुद्धि कर ली जाय, तव भावार्थ लिखने में हाथ लगाया जाय ; क्योंकि भावार्थ-शुद्धि का पाठ-शुद्धि से आंतरिक संबंध है । बस, इस विचार की पूर्ति के लिए हमने सतसई' की प्राचीन प्रतियों तथा अन्य टीकाओं का संग्रह करना आरंभ कर दिया, और ईश्वरानुग्रह से शनैः शनैः कृतकार्य भी होने लगे । इस अनुसंधान में अनेक हस्तलिखित मूल तथा सटीक प्रतियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें कई बड़े महत्त्व की हैं । उनका यथास्थान विवरण दिया जायगा ॥ उक्त प्रतियों में हमें एक प्रति पूज्य स्वर्गीय पं० लक्ष्मीनारायण जी ( उपनाम कमलापति कवि ) से मिली । यह प्रति संवत् १७६६ की लिखी हुई है। यह अचलगढ़ (अलवर) में किसी वस्तकुंवरि जी की पुत्र रत्नकुंवरि जी के पढ़ने के निमित्त, लक्ष्भीरत्ननामक किसी चक के द्वारा, लिखी गई थी। इस पुस्तक में कहीं कहीं दोहों के भावों के चित्र भी दिए हुए हैं, और इसके लिखने की परिपाटी मारवाड़ी लेखकों की सी है। इसमें दोहों का क्रम किसी साहित्यिक परिपाटी अथवा विषय के अनुसार नहीं है, अर्थात् इसमें दोहे किसी क्रम विशेष से नहीं रखे गए हैं, प्रत्युत यह बिहारी के दोह का एक सामान्य संग्रह मात्र है। इसे देखने से एकाएक यह भावना उत्पन्न हुई कि कदाचित् इसमें दोहों का पूर्वापर क्रम वही हो, जिससे विहारी ने उनकी रचना की थी। | उसके पश्चात् एक उससे भी सात वर्ष पूर्व की लिखी हुई प्रति हमें अपने पूज्य मित्र स्वर्गीय पं० गोविंदनारायण जी मिश्र से मिली । यह प्रति सं० १७८६ में, किसी गुलाल-: