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बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-कोई उदार मित्र किसी कृपण मित्र को शिक्षा देता है ( अर्थ ) हे मित्र, [ यह ] नीति नहीं है कि गलीत ( दुर्दशा में ) हो कर (अर्थात् अपनी दुर्दशा बना कर ) धन इकट्ठा कर के रक्खा जाय । [ पर हाँ, ] यदि खाने खर्चने ( आवश्यक व्यय करने ) पर [कुछ ] बचे, तो [ चाहे ] करोड़ [ रुपया ] जोड़ा जाय (इकट्ठा किया जाय) । [ भावार्थ यह कि मनुष्य को अपने खाने तथा अन्यावश्यक कायो में कृपणता कर के धन एकत्रित करना उचित नहीं है । हाँ, यदि इन व्यय के पश्चात् कुछ बचे, तो भले ही एकत्रित किया जाय । पर मनुष्य के श्रावश्यक व्यय ही इतने हैं कि उन्हाँ का पूरा पड़ना कठिन है ] ॥ दुरै न निघरघट्यो दियँ ए रवरी कुचाल । बिषु सी लागति है बुरी हँसी खिसी की, लाल ॥ ४८२ ॥ निघरघट्यौ–निघरघट उस मनुष्य को कहते हैं, जो पानी अथवा खाद्य पदार्थ को विना इँटे एक बार ही निगल जाय । इसका लक्ष्यार्थ निर्लज, धृष्ट तथा अपराध के स्पष्ट प्रकट हो जाने पर भी मुकरने वाला मनुष्य होता है । 'निघरघटी' का अर्थ निघरघटपन हुआ । इसी निघरघटी' शव्द से 'निघरघट्यौ' बना है, जैसे ‘परोसिनी' से ‘परोसिन्यौ' । इसका अर्थ निघरघटी भी अर्थात् निघरघटपन भी है, जैसे परोसिन्धौ का अर्थ परोसिनी भी ।। ( अवतरण )-प्रौढ़ा अधीरा गायिका का वचन धृष्ट नायक से ( अर्थ )-निघरधटपना भी देने से ( करने से ) आपकी ये कुचालें (परस्त्री के यहाँ जाने इत्यादि की बुरी चालें ) नहीं छिपतीं। हे लाल,[ तुम्हारी यह ] खिसी ( खिसियानपने ) की हँसी [ मुझे ] विष सी बुरी लगती है ॥ छाले परिबे कैं डरनु सकै न हाथ छुवाइ । झझकत हियँ' गुलाब के फँवा झैवैर्यंत पाइ ॥ ४८३ ॥ ( अवतरण )–नायिका के पाँव की सुकुमारता का वर्णन सखी नायक से करती है ( अर्थ )–छाले पड़ने के डरों से [ नाइन उसके पाँवों में अपने कठोर ] हाथ नहीं छुआ सकती । [ अतः नाइन-द्वारा उसके ] पाँव गुलाब के झावे से, झझकते हुए (एचकिचाते हुए ) हृदय से, कँवाए जाते हैं । तिय-तरसहैं मुंनि किए करि सरसहैं नेह । धर-परसौं हैं है रहे झर-बरसैहैं मेह ॥ ४८४ ॥ ( अवतरण )—बादल की उद्दीपन-शक्ति का वर्णन कवि करता है, अथवा सखी नायक से कहती है कि ऐसे समय, जब मुनि के मन भी खिर्यों के निमित्त तरस रहे हैं, आपको अलग रहना उचित नहीं है । १. निघरघटो (४) । २. फूल ( २ )। ३. झाइयत ( २ ), *वैयतु ( ३, ५) । ४. मम ( ३, ५)।