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बिहारी-रत्नाकर


विहारी-रत्नाकर सौं हूँ हेयौ न हैं, केती दयाई सौंह ।। एहो, क्यौं बैठी किए हँठी ग्वैठी भौंह ॥ ५०६ ॥ ( अवतरण )-कचहांतरिता नायिका को अभी ऊपर से वैसा ही टेढ़ा भौहें किए देख कर, और उसके मन का पश्चात्ताप समझ कर, सखी कहती है कि अब तू क्यों टेही भौहें किए बैठी है, अब तो नायक यहाँ से चला भी गया । सखी का तात्पर्य यह है कि यदि अब भी नायिका का मान ढीला पड़ा हो, और वह अपना पश्चात्ताप प्रकट करे, तो मैं जा कर नायक को बुला लऊँ ( अर्थ )-[ नायक तथा हम लोगों ने तुझे, मान छोड़ने के निमित्त, ] कितनी ही शपथ दिलाई, [ पर मान छोड़ना तो कौन कहे ] तूने सामने ( नायक की ओर ) देखा भी नहीं । [ तव लाचार हो कर वह बेचारा यहाँ से चला गया | अरी, [ भला बतला तो सही कि अब तू ] क्यों टेढ़ी मेढ़ी भाह किए बैठी है [ अव तो रोष का नहीं, पछताने का अवसर ३ ] ॥ ही और सी लै गई टरी औधि कैं नाम । दुर्जे के डारी खरी बौरी बौरै आम ॥ ५१० ॥ । अवतरण )-प्रापित पतिका नायिका एक तो यह सुन कर अत्यंत व्याकुल हो रही है कि प्रियतम ने थाने की जो अवध बदी थी, वह टल गई है। दूसरे वसंत के बारे हुए आमाँ ने उसको सर्वथा बावली ही कर दिया है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ एक ते ] टली हुई अवधि के नाम ( सुनगुनी, चर्चा ) [ सुनने ] से [ वह हृदय में [ कुछ ] और ही सी ( विलक्षण तथा अस्वाभाविक चित्तवृत्ति वाली ) हो [ ही ] गई थी, दूसरे [ अब उसको ] वौरे हुए आमों ने खरी ( सर्वथा, पूर्ण रीति से) बौरी बावली ) कर डाला ॥ सही रँगीलें रतिगै जंगी पगी सुख चैन । अलसैहैं। सहैं कि मैं कहैं हँस नैन । ५११ ।।। रति-जगे = (१) किसी उत्सव के कारण रात्रि भर के जागरण में । (२) रति के निमित्त जागरण में। अवतरण –नायिका ने रात्रि भर नायक के साथ रत्युत्सव में जागरण किया है, जिससे उसकी आँखें अलॉहीं हो रही हैं। अखिों के उनींदी होने का कारण वह सखी से किसी उत्सव के रतजग मैं जागना बतलाती है। पर जब वह आँखें सामने करती है, तो वे हसाँहीं हो जाती हैं, जिससे सखी सही बात लक्षित कर के कहती है | ( अ )- [ तेरे ] अलसाहें नयन सामने करने पर अथवा शपथ खा कर हसाहे [हो] कहते हैं कि तु सह(सचमुच) रंगीले (रंग-भरे, सरस, मंदप्रद) रति जगे (१. किसी उत्सव के रतिजगे । ३. रति के जागरण ) में सुख [ और ] चैन में पगी हुई जागी है ॥ १. चायो । २ ) । २. हिय ( ४ ) । ३. सु और ( ३,५ ) । ४. रही ( २ ) । ५. जु डरी ( २ ) । ६. प्रारं ( २ ). ७. दैन ( ३, ५ )।