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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर में लग जायें, [ पर ] छ ( भुइ मनुष्य ) बड़े नहीं हो सकत । [ जैसे ] फाड़ फोड़ कर देखने से नयन किंचिन्मान भी बड़े नहीं हो जाते ॥ गह्य अबोलो बोलि प्यौ अपुहिँ पठे बसीठि । दीठि चुराई दुहुनु की लखि सकुचाँहीं दीठ ॥ ५९१ ॥ { इतरण ) -- नायिका ने नायक को बुलाने के लिए दृती भेजा थी, सो वह नायक से रमण केर के र उसको साथ ले कर आई है। रमण करने के कारण दान के अखें सन्रुवह हैं, जिससे नायिका ने रमण करना अनुमान कर के भान ठान लिया, और उन । भेर देती भी है। यही वृत्तांत सखी सखों से कहती है-- | ( 34 ) -[ इसने] श्राप ही (स्वयं बड़े चाव से) वसीटि' ( दृती ) भेज कर नायक को बुला कर [ उसके आने पर ] मौन धारण कर लिया है. [ अर ] दान ( नायक तथा दुती ) की सकुचाहीं ( लाजित ) दृष्टि देख कर [ अपनी] दृष्टि ! उनसे ] चुराई ( रोष से नीची कर ली ) ॥ दुखाइनु चरचा नहीं अानन अनिन अनि ।। लगी फिरै ठूका दिए कानन कानन कान ॥ ५९२ ।। दुखाइनु--इस शब्द का अर्थ, प्रभुदयालु पाँडे को छोड़ कर, प्रायः अर सब टीकाकारों ने ‘दुखदाइनि कर दिया है । पर ‘दुखहाइनु' का अर्थ ‘दुखदाइनि' नहीं है । इसका अर्थ ‘दुःख से हुती हुई है। इसका प्रयोग स्त्रियां 'दईमारी' की भाति कोसने में करती हैं । दूका-छप कर किसी की बात सुनने को ठूका देना अथवा इका लगना कहते हैं । ( अवतरण )-- दूत नायिका से नायक के पास, निकुंज में, चलने को कहती है । नायिका चवाइन से दुःखित हो रही है । अतः उसका उत्तर देती है कि इस समय चलने का अवसर नहीं है, आजकल चचाव बहुत फैल गया है, किंचित् वह पटा जाय, तो मैं चलँ | ( अर्थ )-[ इन ] दुखाइना [ अर्थात् चवाइनों ] के लिए मुख मुख में आन ( दूसरी. मेरी चर्चा छोड़ कर अन्य ) चर्चा नहीं है । [ये ] कानन कानन ( वन वन ) में कान दिए ( लगाए ) ठूका { परखी ) लगी फिरती हैं ॥ हितु करि तुम पठयौ, लगै वा बिजना की बाइ ! टली तपति तन की, तऊ चली पसीना-न्हाइ ।। ५8३ ।। ( अवतरण )-नायक के भेजे हुए पंखे की हवा खगने से नायिका को जो स्वेद सरिक हुआ, इसका अर्बन सी नायक से कर के नायिका का प्रेमाधिक्य भ्यंजित करती है ( अर्थ )-तुमने [ जो पंखा ; हित कर के ( प्रेम से ) [ उसके पास ] भेजा, [स] १. अापे ( ३ ), श्रापै (४) ।