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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण }-विहिणी नायिका को वर्षा ऋतु मैं, अधिक उद्दीपन होने के कारण, जुगनू अंगारे से जान पड़े । अतः उसने सखी से कहा कि आज पानी के बदले अंगारे बरस रहे हैं, तू भीतर भाग आ । उसकी यह दशा सखी नायक से निवेदित करती है ( अर्थ )-जुगनुओं को देख कर [ उस] विरह से जली हुई ने [ और भर ] ‘उहि' ( दह कर, दुःख पा कर ) [ मुझसे ] कै बार नहीं कहा ( अनेक बार कहा ) [ कि ] अरी, ‘भीतरी' ( भीतर ) भाग , [ क्योंकि] आज अंगारे बरस रहे हैं ॥ फिरि घर कौं नूतन पथिक चले चकित-चित भागि । फुल्यौ देखि पलालु यन, समुही समुझि दवागि ।। ५६७॥ | ( अवतरण )--वसंत ऋतु में जब जंग में पलाश फूलता है, तो दूर से देखने वालँाँ को जान पड़ता है कि दवारि लगी हुई हैं । इस दृश्य का वर्णन कवि करता है, अर फूले हुए पलाशवन में दाग्नि के भ्रम होन की पुष्टि ग्रह कह कर करता है कि इस भ्रम का होना कुछ मेरी कल्पनः मात्र नहीं है, प्रत्युत, देखो, ऐसे पथिक, जिन्हौंने पहले कभी फूला हुअा पलाश-वन नहीं देखा था, इस दृश्य को देख कर ऐसे भ्रम में पड़ गए हैं कि आगे न बढ़ते और लौट कर घर भागे जाते हैं ( अर्थ ) --[ देखो,] जंगल में पलाश फूला हुआ देख कर, [ और उसे ] 'समुही ( सामने आई हुई ) दवाग्नि समझ कर, नए ( अनुभव शून्य ) पथिक लौट कर चकित चित्त ( भ्रम-भरे चित्त से ) घर के भाग चले ॥ गड़ी कुटुम की भीर मैं रही बैठि दै पीठि। तऊ पलकु परि जाति इत सलज, हँसह डाठि ।। ५९६ ॥ ( अवतरण )-नायिका अपने कुटुंबिय मैं है, और उसका उपपति वहाँ किसी कार्यवश आ गया है । उसे देख कर वह मुंह फेर कर बैठ गई है, पर सस्मित तथा लजीली दृष्टि से क्षण मात्र नायक को देख लेती है । उसके इसी प्रेम तथा चातुरी की प्रशंसा नायक अपने मन में करता है ( अर्थ )-[ अहा ! देखो, इसका प्रेम मुझ पर कैसा गूढ़ है, और यह कैसी चतुर है कि यद्यपि यह ] कुटुंब की भीड़ में गड़ी ( घिरी ) हुई [ मेरी ओर ] पीठ दे कर बैठ गई है, तथापि [ इसकी ] लजा-भरी, मुसकिराती हुई दृष्टि इस ओर ( मेरी ओर ) पल मात्र पढ़ [ ही ] जाती है ॥ नाउँ सुनत ही है गयौ तनु औरै, मनु और। दबै नहीं चित चढ़ि रह्यौ अबै चढ़ाएँ त्यौर ॥ ५९९ ॥ ( अवतरण )-प्रकृतिलक्षिता नायिका से सस्त्री की उक्लि ( अर्थ )-[ नायक का ] नाम सुनते ही [ ते तेरा ] तन [ पुल कादि के कारण ] और ही [सा ] हो गया, [ और ] मन [ भी ] और [ही j(दूसरे ही प्रकार का, अर्थात् १. चढायौ ( ३ ), चदाश्रो ( ५ ) ।