________________
विहारी जाकर २८५ ( अवतरण )-सखी अथवा दूती नायक की नील छवि पर पति पद की शोभा का वर्णन कर के नायिका के वित्त मैं अनुराग उत्पन्न किया चाहती है ( अर्थ )-[ नायक के ] श्याम [ तथा ] सोने ( सुंदर, चमकीले ) गात्र पर ओढ़ने से पीत पट [ ऐसा ] शोभित होता है, मानो नीलमणि के पर्वत पर प्रातःकाल आतप ( घाम ) पड़ा हुआ है ॥ भाल लाल बँदी, ललन, अखंत रहे विराजि । इंदुकली कुंज मैं बसी मनी राहु-भय भाजि ॥ ६९० ॥ लाल बॅदी =रोली अथवा सिंदूर को गोल टिप्पी ॥ ललन हे लालन, हे ललन ।। आखत ( अक्षत )= विना टूटे चावल, जे कि पूजा इत्यादि में काम आते हैं । अतताँ की आकृति चंद्र की पतली कलायों से बहुत मिलती है। किसी शुभ अवसर पर मस्तक में तिलक लगा कर उस पर अक्षत चिपका दिए जाते हैं । कुज= भौम अर्थात् मंगल ग्रह, जिसका रंग लाल है । यह पृथ्वी से इतनी दूर है कि यदि उसके पास चंद्रमा चला जाय, तो पृथ्वी की छाया उस पर नहीं पड़ सकता, क्योंकि सूर्यबिंब पृथ्वी से बहुत बड़ा है, अतः पृथ्वी की छाया सूर्य के विरुद्ध दिशा में सूचिकाकार पड़ती है, और सूर्य तथा पृथ्वी की बड़ाई, छुटाई तथा दूरी के अनुसार एक परिमित दूरी से अधिक दूरस्थ पदाथो” पर वह छाया नहीं पड़ती । इसके अतिरिक्त मंगल क्रूर ग्रह है, अतः यह भी कहना संगत है कि राहु उसके समीप जाते डरता है । देवकीनंदन की टीका में यह लिखा भी है कि “जोतिष-मत में कह्यौ है, मंगल को राहु डरात है' ।। भाजि—इस शब्द का अर्थ अन्य टीकाकारों ने भीग कर लिखा है, पर हमारी समझ में इसका अर्थ विभक्त हो कर करना अधिक संगत है, क्योंकि राहु का भय चंद्र की कला को नहीं होता, प्रत्युत पूर्ण चंद्र को । अतः यह कहना विशेष समीचीन है कि राहु के भय से विभक्त हुई चंद्र की कलाएँ मंगल में बसी हैं। इस अर्थ में राहु से बचने के निमित चंद्रमा का दो कार्य करना सिद्ध होता है -एक तो उनका कलाशों में विभक्त हो जाना, क्योंकि उसकी कलाओं पर राहु का श्राकमण नहीं होता ; दूसरे उसका कलात्रों में विभक्त हो कर मंगल ग्रह में बसना, क्योंकि मंगल ग्रह के समीप पुथ्वी की छाया अधिक दूरी के कारण नहीं जाती ; अथवा यह कहिए कि मंगल के पास राहु भय से नहीं जाता ॥ ( अवतरण )–नायिका ऋतुस्नान कर के गौरी, गणेश इत्यादि के पूजन से निवृत्त हो, मस्तक पर जाल तिखक धार झिए, विराजमान है। उस तिजक मैं पूजन के अक्षत भी बगे हुए हैं। सही नायक के पास जा कर उसकी शोभा का वर्णन करती हुई तिलक को मंगल तथा अक्षत को चंद्र की कलाएँ ठहरा कर एक प्रह-संस्था विशेष पर ध्यान दिला संयेागोपयोगी समय सवित करती है ( अर्थ )-हे ललन, [ उसके] भाल पर साल बेंदी में अक्षत [ ऐसे] विराजमान हैं, मानो चंद्र की क जाएँ राहु के भय से विभक्त हो कर मंगल ग्रह मैं [ आ ] बसी हैं । | इस उत्प्रेक्षा से सखी नायक ॥ ध्यान मंगल ग्रह में चंद्र को अंतरदशा पर दिखाती है, जिसके केंद्रस्थ अर्थात् प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम स्थान पर होने से दार-पुत्रादि-सौख्य की प्राप्ति होती है। यथा-- १. श्रावत ( ३, ५)। २. कॅज ( ३, ५) | ३. दुरी ( ३, ५)।