पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३४

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प्राक्कथन यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि हमारी प्राचीन प्रतियों में से भी परली तथा दूसरी प्रतियाँ विशेष प्रामाणिक तथा शुद्ध हैं । अतः शब्दों के रूप-निर्धारण में विशेषतः इन्हीं से सहायता ली गई है। इन दोनों पुस्तकों को मिला कर ६ स्थान पर इसका पाठ 'नैक', १४स्थानों पर 'नॅक' और दो दो स्थानों पर नंकु' तथा नॅन' मिलता है। अतएव सतसई में प्रयोगाधिक्य के विचार से इस शब्द का 'नॅक' पाठ ही ठीक ठहरता है । फिर इस बात पर विचार करने से भी कि यह शब्द संस्कृत शब्द ईषदर्थवाचक 'न' में 'क' प्रत्यय लगा कर बना हुआ प्रतीत होता है, इसका नैक' रूप शुद्ध जचता है । इसका कई ‘नेक', कहीं नैक' इत्यादि लिखना लेखकों की असावधानी मात्र है। अब रह गया इस बात पर विचार करना कि नक' तथा 'नैकु' रूपों में कौन विशेष ग्राह्य है । इसके विषय में यह वक्तव्य है कि प्राचीन प्रतियों के किसी किसी दोहे में यह शब्द उकारांत लिखा मिलता है, और ब्रजभाषा की अन्यान्य पुस्तकों में भी कहीं कहीं यह उकारांत ही दिखाई देता है। इस का कारण यह प्रतीत होता है कि यह शब्द प्रायः क्रियाविशेषणवत् ही प्रयुक्त किया जाता है, और ऐसे क्रियाविशेषण संस्कृत में कर्मकारक रूप में रखे जाते हैं । अपभ्रंश तथा प्राचीन साहित्यिक प्रजभाषा में अकारांत पुंलिंग शब्द के कर्मकारक का एकवचन रूप उकारांत होता था, अतः 'नॅक' शब्द का, उसके क्रियाविशेषण होने की अवस्था में, उकारांत प्रयोग समीचीन है। इसी विचार से ऐसे अवसरों पर उसका पाठ'नकु' रखा गया है । पर जहाँ वह क्रियाविशेषण-रूप से नहीं आया है-जैसे ७९ अंक के दोहे में-वहाँ वह अकारांत ही रक्खा गया है ॥ | इसी प्रकार सतसई की प्राचीन प्रतियों तथा ब्रजभाषा के अन्यान्य ग्रंथों में अनेक अकारांत शब्दों को कहाँ अकारांत तथा कहाँ उकारांत लिखा पा कर जैसे स्याम, रूप इत्यादि तथा स्यामु, रूपु इत्यादि-इस बात के निर्णय की आवश्यकता पड़ी कि उकारांत लिखने की प्रथा किसी सिद्धांत पर निर्भर है, अथवा कवि तथा लेखक की रुचि की अनुसारिणः । पाँच प्रतियों के ऐसे उकारांत लिखे हुए शब्दों की जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा उकार एकवचन शब्दों ही में लगाया गया है । इसके अतिरिक़ यह भी निर्धारित हुआ कि वे शब्द पुलिंग कर्ताकारक अथवा कर्मकारक हैं । यद्यपि किसी किसी प्रति में कहाँ कहाँ कर्ता तथा कर्मकारों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के कोई कोई शब्द भी उकारांत लिखे दृष्टिगोचर हुए, पर उनकी संख्या इतना न्यून है कि वे परिगणनीय नहीं । उनके लेख में लेखक का प्रमादि मात्र मानना ही समुचित प्रतीत हुआ । प्रथम तथा द्वितीय पुस्तकों में तो यह लेख-प्रणाली भली भाँति निबाही गई है, केवल परिगणित स्थानों पर यथेष्ट उकार लगा नहीं निकलता, जो कि लेखक की असावधानी मात्र कही जा सकती हैं। तृतीय पुस्तक में और भी अधिक उकार छोड़ दिए गए हैं, और चतुर्थ तथा पंचम पुस्तक में बहुत अधिक। पर यह बात ध्यान देने की है कि जिन जिन स्थानों पर प्रथम अथवा द्वतीय पुस्तक में उकार छूट गया है, उनमें से कितने ही स्थानों पर तृतीय, चतुर्थ अथवा पंचम पुस्तक में वह लंगा मिलता है । अतः सय मिला कर जाँच करने से ऐसे स्थान बहुत ही कम रह जाते हैं, जहाँ पाँचौं पुस्तकों में से किसी में यथेष्ट स्थगन पर उकार न लगा हो । इस जाँच है यह बात सिद्ध हुई कि बिहारी ने एक विशेष प्रकार के अकारांत पुंलिंग शब्द के कर्ता