पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३७

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३० बिहार-रत्नाकर विहारी-रत्नाकर टीका इस ग्रंथ का टीका-भाग, सं० १९७८ के माघ मास से, श्री अयोध्यापुरी में, आरंभ हो कर संवन् १९७६ भाद्रपद की ऋषि-पंचमी को, हमारी ५६वीं वर्षगाँठ के दिन, कश्मीरप्रांत के निशानबाग-नामक स्थान में समाप्त हुआ । | पहले हमारा विचार था कि इस टीका में प्रत्येक दोहे पर साहित्य के सब अंगअलंकार, लक्षणा, व्यंजना, ध्वनि इन्यादि-भी लिखें । पर अवकाशाभावात् उफ़ संकल्प के पूरे होने में बहुत दिनों की आवश्यकता थी । अतः हमारे कई सज्जन मित्रों ने सम्मति दी कि इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण केवल दोहों की पाठ-शुद्धि कर के तथा अर्थ मात्र दे कर प्रकाशित कर दिया जाय; क्योंकि पाठ-शुद्धि तथा अर्थ ही पर अलंकारादि निर्भर रहते हैं। उनके अनुरोध तथा सम्मति से हमने भी ऐसा ही करना उचित समझा, जिसमें जो श्रम हो चुका है, वह दृथा न जाय । यदि अवकाश प्राप्त हुआ, और इस ग्रंथ के पुनः संस्करण का अवसर आया, तो यथासंभव कुछ साहित्यिक विषय भी प्रेमी पाठकों की सेवा मैं उपस्थित किए जायेंगे । | इम टीका में विशेषतः इस बात का ध्यान रखा गया है कि पाठकों की समझ में शब्दार्थ तथा भावार्थ भली भाँति आ जायें । दोहे के शब्दों के पारस्परिक व्याकरणिक संबंध तथा कारक इत्यादि के, स्पष्ट रूप से, प्रकट करने का भी यथासंभव प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक दोहे के पश्चात् उसके कठिन शब्दों के अर्थ दे दिए गए हैं, और फिर उस दोहे के कहे जाने का अवसर, वझा, बोधव्य इत्यादि, 'अवतरण' शीर्षक के अंतर्गत, बतलाए गए है । उसके पश्चात् 'अर्थ' शीर्षक के अंतर्गत दोहे का अर्थ लिखा गया है। अर्थ लिखने में जो कोई शब्द अथवा वाक्यांश कठिन ज्ञात हुआ, उसका अर्थ, उसके पश्चात्, गोल कोष्ठक में दे दिया गया है, और जिस किसी शब्द अथवा वाक्यखंड का अध्याहार करना उचित समझा गया, वह चौखूटे कोष्ठक में रख दिया गया है । जहाँ कहीं कोई विशेष यात कहने की आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ वह टिप्पणी-रूप से एक भिन्न वाक्य-विच्छेद (पैराग्राफ़ ) मैं लिखी गई है ॥ पांचों प्रतियों के आवश्यक आवश्यक पाठांतर भो, दोहे के शब्दों पर १,२ आदि अक लगा कर, पाद-टिप्पणियों में दे दिए गए हैं। पाद-टिप्पणियों में जो अंक कोष्ठक के थाहर हैं, वे तो घे हैं, जो दोहों पर दिए गए हैं, और पाठांतर के पश्चात् जो अंक कोष्ठक में है, वे पाँच प्रतिरों के सांकेतिक अंक हैं॥ इस टीका में अधिकांश दोह के अर्थ अन्यान्य ! काओं से भिन्न हैं । उनके यथार्थ होने की विवेचना पाठकों की समझ, रुचि तथा न्याय पर निर्भर है ॥ हमारे विद्याभूषण पं० रामनाथ जी ज्योतिषी बिहारी-सतसई की अनेक प्रतियों के साथ बिहारी के एक चित्र की अनुकृति भी जयपुर से लाए हैं । उक्त चित्र किसी अतः में लगा हुआ है । उसका पता पंडित जी को संयेाग से लग गया, और उन्होंने अपने तथा उद्योग से उसकी अनुकृति प्राप्त कर ली । उसमें उस समर का दृश्य दिखलाया है, जब बिहारी ने “नहिं पराग, नएँ मधुर मधु” इत्यादि दोहा लिई कर महाराज जाँके