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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३८०

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उपस्करण--२ हा अरगनी तकन हौ, अहो अनोख नाह । अई कारी प्यारी लगै गरुड़-पच्छ की छाँह ॥ १० ॥ चन्दन यान वने, दुतिसुमेर हरि लीन । बदन-दुरावन क्या अने, चंद कियौ जिहे दोन ॥ ११ ॥ गति दे, मति दे, हेतु दे रसु दे, जसु दै दान । तनु दें, मनु ६, सीसुदै नेह न दीजै जान ॥ १२ ॥ बिनु धरजं धेां का कहै, वरज्यो कांप जाइ । जो जिय में ठायी रहे, तासां कहा बसाइ ॥ १३ ॥ सपत घड़े फुलत सकुचि सब-सुम्ब केलि-निबास । अपत कैर फूलत बहुत मन में मानि हुलास ॥ १४ ॥ मतसैया के दोहर' ज्या नावक के तार । देखत अति छ।टे लेंग, घाव कर गंभीर ॥ १५ ॥ मुदत, ग्वुलन दृग तय के, ६ रीझ ६ भइ । स्रमित भए पिय जानि के मान ढोरन हि ॥ १६ ॥ छप छप देखत कुन-तन कर मा अँगिया टारि।। नैननि में निरखुन रई, भई अनोखे नारि ॥ ७ ॥ सखियन में बैठी रहे, पूछ प्रति-प्रकार । हँसि सि अपुस म केहं प्रकट भये हे मार ॥ ६८ ॥ चित में तो कछ चेपर्सा, निपट न लाग्येः नेह। कईं दुरै, देखें कहूँ, कहूँ दिखायें देह ॥ ६६ ॥ लट्र भये वास रहत वाही से झुकि रंग। मन मोम मानी भयो वाही तय के संग ॥ १०० ॥ होति कहा कहि, हो सखी, दंपति की रस-रीति । वा समए की देख छवि गये। मदन-भुइ जति ॥ १०१ ॥ नैन पर पिय-रूप में, रूप में दिय माहि। बात परी सय कान में, मोहिं परै कल ना६ ॥ १०२॥ बूंघट पट की ओट में निडर रहै मति कोइ । कुद्दी बाज कुलही दिये अधिक सिकारी होइ ॥ १०३॥ सूक्यों बारिज, कुसुम-बन, पुडुप मालत-बृद । मधुप कहा जीवन जियै मूली के मकरंद ॥ १० ॥ १. जेठ-दुपहरी मांह ।