सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

बिहारी रत्नाकर छरी सपल्लव-लाल कर लखि तमाल की हाल ।। कुँभिलानी उर साल धरि फूलमाल ज्यों बाल ॥ १३६॥ तेरी मलनि, चितौनि मृदु मधुर मंद मुसकानि । छाइ रद्दी सखि, लाल की लखि अनिमिष अँखियानि ॥ १७॥ नथुनी गजमुकतानि की लसत मारु सिंगार । जिन हिरे मुकुमारि तन और आभरन भार ॥ १३८॥ झूठ ही ब्रज में लग्यो मोहिँ कलेक गुपाल । सपने हैं कबहूँ हियें लगे न तुम नंदलाल ॥ १३९ ॥ प्रीतम के मनभावती मिलति बाँ६ ६ कंठ । न्याई छुट न कंठ तें, नाहीं छुटी न कंठ ॥ १० ॥ प्रान-पियारी पग परयो, तू म तकति इहिं ओर । ऐसी उर जु कठोर, तौ न्यायहिँ उग्जु कठोर ॥ ११ ॥ चली अली, कहि, कौन चें, बड़ी कौन कौ भाग ।। उलटी कंचुकि कुचनि १ कहें देति अनुराग ॥ १२॥ सिसुता-अमल-तगीर मुनि भए और मिलि मैन । कही होत है कोन के, ए कसबाती नैन ॥ १३ ॥