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पृष्ठ:बीजक.djvu/१३२

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रमैनी । ( ८१ ) सुनत सुनत वाको डेरात डेरात तदाकारद्वै भृङ्गीहीरूप है जाय है तैसे रामनाम नपतजाइहै, वाको सुनतनाइहै, जगत् मुख अर्थते डेरातजायहै; औ साहबमुख अर्थमें साहवकी रूप है अपनो हंसस्वरूप बिचारत निन हंसरूप में तदाकार वैजायेहै, मनादिकं मिंटिजायेहै शुद्ध रहिजाय है सो अपनेरूप पायजाय है । तब मन वचनके परे जो रामनाम सो आपनेते अस्फूर्तिहोइ है तामें लौलगायकै जैसे कीटभृङ्गी बनिकै औरे कीटको भृङ्गो बनावैहै तैसे यही जीव उपदेश कारकै औरेहूको हसरूप बन्येव है । सो जो भृङ्गीको शब्द कीट न ग्रहणकैरै तौ कीटही रहिनाय ऐसे जो रामनामको जीव ना ग्रहणकरै तै असारही रहिजार्यहैं। तामें प्रमाण अनुरागसागरको।(ज्यों भृङ्गगै कीटके पासा । कीटहिगहि गुरग मि परगासा ॥ बिरला कीट होय सुखदाई । प्रथम अवाज गहै चितलाई । कोइ दूजे कोइ तीजे मानै । तन मन रहित शब्दहित जनै । तबलैगे भृङ्गी निजगेहा । स्वाती देकर निज समदहा ) ॥ ३॥ भोअतिगरुवादुखकैभारी । करुजिययतनजोदेखुविचारी मनकीवातहैलहारविकारा। त्वहिनहिंसूझैवारनपारा ॥३॥ | यह संसार भारी दुःखकारकै अति गरुवा बोझाहै जीव तू बिचारि देखु जी तोको बोझालं तौ रामनामको यतन करु ॥४॥ मनकी बातकहे मनते गुरुवन को धोखा ब्रह्म तेहिते उठी जो काररूप लहरि माया ताका कौनो मन कहिकै तोको वारपार नहीं सूझ है ॥ ५ ॥ साखी ॥ इच्छाकेभवसागरै, वोहितरामअधार ॥ ककबीरहरिशरणगहु, गोवछखुरविस्तार ॥६॥ यह जो समष्टि जीवको इच्छारूप भवसागर तामें वोहित जो नौका रामनाम सोई आधार है और नहीं है सो कबीरजी कहै हैं हर जे साहेब तिनकी शरणगहु यह भवसागर गऊके बछवाके खुरके सम उतार जायगो यामें संदेह नहीं है ॥ ६ ॥ इति वीसवीं रमैनी समाता ।