पृष्ठ:बीजक.djvu/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( ११३ )
रमैनी ।

रमैनी। (११३) भमैं सबघट रह्योसमाई । भर्मछोडि कतहूं नहिं जाई ॥३॥ परैनपूरदिनौदिनछीना। जहां जाहु तहँ अंग विहीना ॥४॥ जोमतआदिअंतचलि आया। सोमतउनसवप्रकटलखायार ___ वही भर्म घट घटमें समाइ रह्यो है भर्म छोडिकै अनत न जात भये वही संशयमें रहिगये॥३॥पूर नहीं रहै कहे निश्चय नहीं होईहै दिनौदिन क्षीण होतं जाइहै क्षीणकहां होइहै कि, यह जानहै कि हमारो अज्ञान दुरिभयो पै जहां नाईहै तहैं निराकार धोखई मिलहै हाथ कछु नहीं लगैहै ॥४॥ वेदको अर्थ तो परोक्षहैकहै अप्रगटहै तात्पर्य वृत्तिकरिकै साहबको लखावहै तौन अनादिमत ताकों न समुझतभये वहवेदको अर्थ गुरुवालोग प्रगट कारकै अर्थात् अपरोक्ष नौन आदि अंतते चलो आयो है ताको बळ परिगयो ॥ ५ ॥ साखी ॥ वहिसंदेश फरमानिकै, लीन्होंशीशचढ़ाइ ॥ संतोहै संतोषसुख, रहहुतौहृदय जुड़ाइ ॥६॥ __ वही तत्त्वमसि उपनिषत्को संदेश शीश चढाइ लेतेभये वेदनमें वाणीमें तात्पर्य करिकै सांचपदार्थ कह्यो ताको न जानतभये संतपद संतोष सुखहै तौने जो रहौ तौ हृदय जुड़ाइ औरेमें तो तापई होइगो काहेते सबते परे है नाकों साहब दूसरो नहीं है ऐसे जे चक्रवर्ती श्रीरामचन्द्र हैं तिनको जबपायो तब उनते कम ब्रह्महोबकी ईश्वरके मिलिवेकी और मायिक जेपदार्थ हैं तिनके मिलिबेकीचाहई न होइगी काहेते कि वहचक्रवर्ती के मिलिवकेसमसुख नहीं है ब्रह्मानंद विषया- नंद आदिकनमें जबलगैगो तहहीं सबते संतोष झै याको मन शांत जाइगो॥६॥ इति अड़तीसवीं रमैनी समाप्ता। अथ उन्तालीसवीं रमैनी। चौपाई। जिन्हकलिमाकलिमाहँपढ़ाया।कुदरतखोजितिन्हौंनहिपाया करिसतकर्म करे करतूती । वेद कितावभयासवरीती ॥२॥