पृष्ठ:बीजक.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( १२९ )
रमैनी ।

रमैनी । ( १२९) अथ पचासवीं रमैनी। चौपाई। कहतेमोहिंभयलयुगवारीसमुझतनाहिंमोहसुतनारी ॥ १ ॥ बंशआगिलाग वंशजरियाभ्रिमभुलाय नरधंधेपरिया ॥२॥ हस्तके फंदे हस्ती रहई । मृगी के फंदे मिरगा परई ॥ ३ ॥ लोहै लोह काटजसअनातियकैतत्त्व तियापहिचाना॥४॥ साखी । नारि रचते पुरुष है, पुरुष रचंते नार ॥ पुरुषहिपूरुष जो रच, तेहि विरलेसंसार ॥५॥ चारिउ युग मोको समुझावत भयो पै सुत नारीके मोहतेकोई समुझत नहीं । है ॥१॥ जैसे बांसकी आगी बांसैको जारिदेइहै तैसे सुतनाके मोहरूप भ्रममें | भुलायकै नरधंधेमें परे जाइ हैं कोई नाना ज्ञान उपासनामें परिकै जरें है कोई सुतनारीके धंधेमे परिकै जरैहै ॥२॥ जैसे हथिनीके फंदेहाथी हैंहै मृगीके फंदे मृगा परै है कहे फैदिजाये है ऐसे जीवके फंदमें जीवपरैहै । जैसे लोहते लोह कटिजाय है तैसे जीवहीते जीव यहमारो परै है। तियकी तत्त्व स्त्री पहिचानें स्त्री जो ऊंटिनी ताकी तत्त्व वही जानैहै । अर्थात् जीवही ते जीव भ्रमिजायँहै । काहेते साहबको तो जानैनहीं जीव जीवही में विश्वास माने मायामें मिलिकै या जीव मायाही में रह्यो है तात मायाकेही पदार्थमें विश्वास मानहै ॥३॥४॥| नारीते पुरुष रचिनाइहै कहे मायाते सब पुरुष भये हैं औ पुरुष जोहै शुद्धसमष्टि जीव ताहीते मायाभई है । औ पुरुष जो हैं शुद्धजीव सोपरमपुरुष जे श्रीरामचन्द्र सबके बादशाह तिनमें रचे कहे प्रीतिकरै ऐसो कोई बिरलाहै ॥ ५ ॥ इन पचासवीं रमैनी समाप्ती ।।