( १३८) बीजक कबीरदास । जातकौरवनलागिनवारा गयेभोजजिनसाजलधारा ॥ २॥ गेपांड्व कुंतीसी रानी । गेसहदेवजिनमत बुधिठानी ॥३॥ सर्वसोनेकी लंक वनाई । चलत बारकछुसंग न लाई ॥४॥ औ कौरवनको जातवार न लग्यो औराजाभोजगे जिनधारानगरीको बसाये है। कहे साज्या है भोजके कहेते कलियुगके राजा सब आयगये ॥ २ ॥ औ पांडवानेहैं औ कुन्ती ऐसी रानी जो हैं औ सहदेव जैहैं ते सब जातभये नेपण्डितहैं तिनहू में अपनीमति कहे बुद्धि अधिक ठानतभये कहे करतभये ॥३॥ औ सब लंका सोनेकै रावण बनायो पै चलतवार संगमें न गई ॥ ४ ॥ कुरियाजासुअंतरिक्षछाई । सोहरिचंद्रदेखिनहिंजाई ॥॥ औ जाकी कुरिया अंतरिक्ष में छाईहै कहे स्वर्गमें महलबनॉहै इन्द्रते अधिक सिंहासनमें वैठेहैं ऐसेञहैं हरिश्चन्द्र राना तेऊनहीं देखिपरै हैं अर्थात् तेऊ न रहिगये मरिगये भावयह है कि महा प्रलय भये त्रैलोकमें कोई नहीं रँहिजाईंहै॥५॥ मूरुखमानुषअधिक सजोवै । अपनामावलऔरलगिरोवै॥६॥ इ न जानै अपनो मरिर्जबै । टका दशवटै औरलैवैवै ॥७॥ | मूरुख जो मनुष्य से संनोवै कहे अधिक सम्यक् प्रकारते जोवै है अर्थात् और को मरिवो कहे आना मरिगयो बाप मरिगयो इत्यादिक सबको मरिबो देखतई जायहैं औ रोवै हैं अपने मरनकी चिन्तानहीं करैहैं ॥६॥ या नहीं जानैहैं कि जेतेदिन बीतिगये जेतने मारगये और मरिही जायँगेध है विचारै हैं कि और दशटका बढ़े जाते बहुतदिन बैठेखा ॥ ७ ॥ साखी ॥ अपनी कारगये, लागिनकाहुकेसाथ ॥ अपनीकरिगयो रावणा, अपनीदशरथनाथ ॥८॥ जतिजति पृथ्वी सबै अपनी अपनी कारकै गये यशी दशरथराजा ते अधिक कोई न भयो जाकी सब प्रशंसा करैहैं उनके सुकृतको यश जगतही में रहिगयों उनके साथ न गयो है अयशीरावणते अधिक कोई न भयो जाकी सब निन्दाकरै हैं जाके दुष्कृतको अयश जगतहीमें रहिगयो ॥ ८ ॥ इति पचपनवीं रमैनी समाप्तः ।
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