पृष्ठ:बीजक.djvu/२०१

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( १५१ )
रमैनी ।

रमैन । (१५१) परै जब न सूझ परयो तव अज्ञान द्वैगये नेतिनेति कहनलगे कि, अकथ है। कबीरजीका प्रमाण ॥ वेदबिचार भेद जो जानै। सतगुरु मर्मशब्द पहिचानै ॥ ४ ॥ गुरुवा लोग कहै हैं कि, वही जाहै अविनाशी सो सबके घटघट में सबको नाच नचावै है औनटके वेष आपो नाचै है । सो कबीरजी शेखतकीसों कहै हैं कि, हे शेखतकी ! जो, सबको नाचनचोवैग अपनटके वेष नाचैगो सो अविनाशीकैसेहोइगो काहेते कि नटएक वेषलैआयोपुनि वह वेष छोड़िके और वेष लैआयो याही भांति नानावेष नट धारणकरै हैं ते सब अनित्यहैं नाना वेष धरिबो तौ माया गुणहैं वह मायाके परे कैसे होइगो औ जब मायाते परे न होइगो तौ अविनाशी कैसे होइगो सो हे शेखतंकी तुम सुनो वाहूबिचार करत करत जो शेष रहिनायहै सो तुमही बातो तुम्हारहो अनुभवहै अथवा तुम शेष है। सो कार निराकार के परे जो साहब है तो तुम शेष हौ कड़े अंश।। ! ५ ॥ | इति तिरसठवीं रमैनी समाप्ता । अथ चौंसठवीं रमैनी । चौपाई। कायाकंचनयतन कराया।बहुत भांतिकै मन पलटाया॥१॥ जो सौवार कहौ समुझाई । तहिवो धराछोड़ि नहिंजाई ॥२॥ जनकेकहे जोजन रहजाईनको निद्धि सिद्धी तिनपाई॥३॥ सदाधर्म तेहि हृदयावसई । राम कसौटी कसतै रहई ॥४॥ जोरि कसावै अंतै जाई । तौ वाउर आपुहि वौराई ॥ ६॥ साखी ॥ ताते परी कालकी फांसीकरहु आपनो शोच ॥ जहां संत तहँ संत सिधावै,मिलि रहे पोचे पोच ॥६॥ | कबीरजी कहैहैं कि ईजीवनके कायाको हम बहुत यतनकरवाया औ बहुत भांति ते मन पलटाया कि तू धोखा को त्याग कंचन आपने स्वरूपको जाने। ?