पृष्ठ:बीजक.djvu/२२९

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| रमैनी । सो कबरनी पुकारकै कहैं कि खातखात केतन्यो युग बीत गये याहीते जन्म मरण याको नहीं छूटैहै अज्ञान नहीं जाइ है सो अवहूं नहीं चेतकरैहै सो यहनीव अचेतै कहे बिना साहब के चेतकिये अर्थात् विना साहबके ज्ञाने नरक- को चळोजाइहै ।। ४ ।। इति उन्नासिवीं रमैनी समाप्ती । अथ असिवीं रमैनी। चौपाई। बहुतकसाहसकरिजियअपना। सोसाहेवसों भेटनसपना १ खराखोट जिननहिंपरखाया । चहतलाभसमूर गमाया २ समुझिनपरै पातरी मोटी ।आछीगाढ़ी सब भो खोटी॥३॥ कहँहिकवीरकेहिदेहखोरी । जवचलिहौ झिनआशीतोरी वहुतकसाहसकरिजियअपना सोसाहेवसोंभेटनसपना॥१॥ खराखोटजिननहिंपरखाया। चहतलाभसमूरगमाया ॥२॥ | हे जीव ! आपही ते तुम ज्ञानयोग वैराग्य तपस्यामें साहसकरिके बहुतक्लेश सह्यो परन्तु इनते तेहि साहबसों भेट सपनहू नहीं है जौन छड़ावन वारोहै॥१॥ जिनजीव गुरुवा लोगनकेसमुझाये नानामतमें लागि कहूं सांच साधूते खरीखोट नहीं परखाये तेनीव चाहत तो मुक्तिको लाभहैं परन्तु जिनसुकर्मनते अंतःकरण शुद्धिदारा सांचे साधुको ज्ञान बतायो ठहरै सोङ सो मूर गमाय दियो ॥ २ ॥ समुझि न परेपातरीमोटी । आछीगाढ़ी सवभो खोटी॥३॥ कहकबीरकहिदेहखोरी। जबचलिहॉझिनआशातारी॥४॥ सोनिन मूरगमय दियो तिनको पातरी कहे अरु मोटीकहे बिभुनहीं समुझि | परै है कहते ओछी जामति है तामें निश्चयरूप गांठी नहीं परैहै कि यतनोई