शब्द । (१८९) वृक्षमें लागतभये ते सव एकबाणी बेलै हैं कि, “ एक ब्रह्मही है दूसरो नहीं है " साहवको नहीं जाने है सो वहीमक्खी जो जीवहै ताकेमक्खा नहीं है कहेप्रथम जीव जो हिरण्यगर्भ समष्टि जीवहै ताके पति नहीं है परन्तु बिना पानी गर्भर- हतईभयो जीवते संसारप्रकटै यह आपहीते नामको जगत् मुख अर्थ करिके। सेसारी लैगयो साहव तौ याको उद्धार करिबो रमानाम दियो ताकि मेरेनाम मेरो अर्थ जानिकै मेरेपास आवै संसार न होइ ॥ ३ ॥ नारीसकल पुरुषहि खायी, ताते रही अकेला। कहै कबीर जौ अवकी समुझे, सोइ गुरु हमें चेला ॥ ४॥ नारी जो है वहै कारणरूपा माया, सो सबजीव ईश्वर जेपुरुषहैं तिनको खाइ- लियो, कहे आपने पेट में डारिलियो; अर्थात् उन के काहूके ज्ञान न रहिगयो, आपनोचेरो बनाइ लियो । तेहिते हे संतौ ! हे:जीवो ! तुमतो शुद्धहै, इनको छोड़िदेउ, तब साहब जे हैं तेई छोड़ाइ लेगे । अकेलारहो अकेल कहे जे सबके साहब परमपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनके द्वैकैरहौ, जोजीव ईश्वरको सङ्ग करौगे तो तुमहँको माया धरिलेइगी । श्रीकबीरजी कहै हैं कि जो अबकी समुझै कहे यह मानुष शरीर पाइकै समुझे सोई गुरु है तौने जीवको हमचेला लैजाईं अर्थात् ताके हम सेवक हैं जाईं । जो जो हमसों पूछै. सो सब वाको बताइ देईं कछू गोप्य न राखें । अथवा सो हम पूछिलेई कि ऐसे भ्रमजालमें परिकै कौनीभांति ते छूटयो । सो कबीरजी तो कबहूं बँधिकैछूटे नहीं हैं ताते कबीर जी कहै हैं कि जो अबकी या समुझि लेइ तौ हम पूछि लेईं बँधिकै छूटै कैसे सुख होई ॥ ४ ॥ इति पहिलाशब्दसमाप्ता । १ हम कहिये अहंकार अर्थात् कबीर साहब कहते हैं जो अबकी समुहको अर्थात् जो मानुष शरीर में समुझे वह गुरुदै । और अभिमानी माया में बद्ध चलाहै ।।
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