पृष्ठ:बीजक.djvu/२४६

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( १९६) बीजक कबीर दास । आत्मा भिन्न हुनाइगो तब सब शरीरै एक कार्य करनको समर्थ न होइगो । कस, जैसे जीवं इनते अपनेको जुदो मानैगो हंसस्वरूपमें स्थित होइगो सो इनहींका चपाइ लेइगो घरकी रारनिबार जायगी । सो इसतरहते जो कोई अपने स्वरूपको जानि घरकी रारिनिबेरै परमपुरुष श्रीरामचन्द्रमें लगै सोई जन में है ।। ३ ।। इति तीसराशब्द समाप्त । अथ चौथाशब्द ॥४॥ संतौ देखत जग बौराना ।। साँच कहौं तौ मारन धावै झूठे जग पतियाना ॥ ३ ॥ नेमी देखे धर्मी देखे प्रात् करहि असनाना । आतम मारि पषाणहिँ पूजें उनमें कछू न ज्ञाना ।। २ ।। बहुतक देखे पीर औलिया पढ़े किताब कुराना। के मुरीद तदबीर बतावैं उनमें उहै जो ज्ञाना ।। ३॥ आसन मारि डिंभे धारवैठे मनमें वहुत गुमान है। पीतर पाथर पूजन लागे तीरथ गर्व भुलाना ॥ ४॥ माला पहिरे टोपी दीन्हे छाप तिलक अनुमाना । साखी शब्दै गावत भूले आतम खबर न जाना ॥५॥ हिंदू कहे मोहिं राम पियारा तुरुक कहै रहिमाना । आसमें दोउ लरिलरि मूये मर्म न काहू जाना ॥ ६॥ घरघर मंत्रजे देत फिरतहैं महिमाके अभिमाना। गुरुवा सहित शिष्य सब बूड़े अंतकाल पछिताना ॥७॥ १ डिंभ दम्भक अ। भ्रंश ।