पृष्ठ:बीजक.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| ( १९८) बीजक कबीरदास । ४ बर अथ पांचवां शब्द ॥५॥ मुरीद के

  • संतो अचरज यक भो भाई ।। आप

| यह कहाँ तोको पतिआई ॥ १॥ एकै पुरुष एक है नारी ताकर करहु विचारा। एकै अंड सकल चौरासी भर्म भुला संसारा ॥ २ ॥ एकै नारी जाल पसारा जग में भया अंदेशा ।। खोजत काहू अंत न पाया ब्रह्मा विष्णु महेशा ॥ ३॥ नागफाँस लीन्हे घट भीतर मूसि सकल जगखाई । ज्ञान खङ्ग विन सव जगजूझै पकार काहु नहिं पाई॥४॥ आपुहि मूल फूल फुलवारी आपुहि चुनिचुनि खाई। कहैं कवीर तेई जन उवरेजेहिं गुरु लियो जगाई ॥५॥ संतो अचरज यक भो भाई। यह कहीं तो को पतिआई। एकै पुरुष एक है नारी ताकर करहु विचारा। एकै अण्ड सकल चौरासी भर्म भुला संसारा ॥ २ ॥ एकै नारी जाल पसारा जगमें भया अंदेशा ।। खोजत काहू अंत न पाया ब्रह्मा विष्णु महेशा ॥ ३॥ हे संतो ! शुद्धजीवो ! भाई एक बड़ो आश्चर्य भयो जो मैं वाको कहौं । तौ को पतिआय ॥ १॥ एकै पुरुषहै एकै नारीहै कहे वही जीवात्मा पुरुषौ है। नारिउ है ताको विचारकरो वा कौन है ? एकै अंडमा कहे एक ही प्रणवमें उत्पन्न चौरासीळाख योनि तामें पार्रिकै यह जीव संसारके भर्ममें भुलायरह्यो है अथवा एकही अंड कहे ब्रह्मांडहिमें ॥ २ ॥ १ कौन ?