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पृष्ठ:बीजक.djvu/२५२

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( २०२) बीजक कबीरदास । अर्थात् जो साहबको जानै हैं औ अपने स्वरूपको जानै हैं कि, मैं साहबकोहौं ताको माया स्वप्नवहै । अथवा गुरुने सवते श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र तेई जिनकों मोह निशामें सोवत जगाहूदियो है अर्थात् हंसरूप दैके अपने पास बोलाइलियो है। तेई जन उबरे हैं कहे बचै हैं ॥ ४ ॥ इति पांचवांशब्द समाप्त । अथ छठाशब्द ॥६॥ संतो अचरज यक भारी । पुत्र धरल महातारी ॥ १ ॥ पिताके संग हि भई वावरी कन्या रहल कुमारी । खसमर्हि छोड़ि ससुर सँग गवनी सो किन लेहु विचारी॥२॥ भाई संग सासुरी गवनी सासु सौतिया दीन्हा । ननँद भौज परपंच रच्योहै मोर नाम कहिलीन्हा॥३॥ समधीके सँग नाहीं आई सहज भई वरवारी।। कहहि कबीर सुनो हो संतो पुरुष जन्म भो नारी ॥४॥ संतो अचरज यक भो भारी । पुत्र धरल महतारी ॥ १ ॥ पिताके संगहि भई बावरी कन्या रहल कुमारी। खसमाहिं छोंड़िससुरसँग गवनी सो किन लेहु विचारी ॥२॥ | हे सन्तो ! एकबड़ो आश्चर्य भयो पुत्र जो यह जीवहै ताकी महतारी जो मायाहै सो धरतभई ॥ १॥ अरु पिता जो ब्रह्म है ताके संग बावरी द्वै जातभई, कहे जारपुरुष बनावतभई । अर्थात् माया सबलित ब्रह्म भयो औ कन्या जो बुद्धि है सो पतिको निश्चय कहूं न करतभई । बिचारै करत रहिगई । कुँवारिही रहतभई अर्थात् सब मतनमें खोजतभई परन्तु निश्चय न होतभई ॥ पहिले पिता जो ब्रह्लहै ताको खसम बनायो, पुनि तौने खसमको छोड़िकै ससुर जो है मन, कहे मनैको अनुभव ब्रह्लह ताके सँग गवनत भई । सो. हे