पृष्ठ:बीजक.djvu/२८

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कबीरजीकी कथा । | (२५) दोहा-सादर ल्याइ कबीर को, कर उत्सव हर्षाइ ॥ शिष्य भये परिवारयुत, भवभय दियो मिटाइ१७ ॥ भक्तमालकी यह कथा, किय संक्षेप बखान ॥ अब कबीर इतिहासको, विस्तर सुनहु सुजान॥ १८ ॥ देश गहोरा युत परिवार । भयो शिष्य विरासंह भुवारा ॥ कछुक काल लगि नृप ढिग माहीं । वस्या कबीर सुमिरि हरि काहीं । येक समय विरसिंह, नरेशै । दियो बोलाई कबीर निदेशै ॥ देहूँ तोहिं कछु हम ज्ञाना । तात कर अस भूप विधाना ॥ यक ब्राह्मणी रचै यक धोती । वरष दिवसमहँ अतिहि उदोती ॥ लेइ पाणिमहँ टोरि कासू । सूत भूमि परशैनहिं तासू ॥ सो धोतीले आवहु राना ! तब है है तुरंत कृतकाजा ॥ सुनि विरसिंह तुरंत सुखारी । गो ब्राह्मणीसमीप सिधारी ॥ धोती माग्यो तब दिन नारी । सुनु महीप सो गिरा उचारी ।। धोती वर्ष भयंत बनाऊ । जगन्नाथको जायचढ़ाऊँ ।। लेहु महीश शीश बरु मोरा । धोती लेब उचित नहिं तोरा ॥ राजा फिर कबीर ढिग आयो । सकल ब्राह्मणी वचन सुनायो । दोहा-कह कबीर जगन्नाथको, धोती देइ चढाइ । । प्रतीहार कर साथ नृप, तियको दियो पठाइ ॥१९॥ जाय ब्राह्मणी वसन चढायो । प्रभु ढिग ते तुरंत फिरि आयो । कियो ब्रह्मणी धरन तहांहीं । स्वप्न कह्यो नाथ तेहिं काहीं ॥ मांग्यो हम बांधवगढ़ काहीं । काहे दिह्यो मोहि लै नाहीं ॥ जायकवी रै ६इ चढ़ाई । तब जैहै पूरण फल पाई ॥ दिन तिय फिरि बांधवगढ़ आई । दियो कबीरहि वसन चढ़ाई ॥ वसन पहिरि जब बैठि कबीरा । तब आयो विरसिंह प्रबीरा ॥ महिते यक कर ऊंच निहारा । तब कीन्हो अस वचन उचारा ॥ जो हरिको हरि' लोकहु काहीं । दानै म्वहिं देखाइ सुखमाहीं ॥ तौ प्रतीति मोरे पर जाई । ये तो सत्य कबीरै आई ॥