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शब्द ।। ( २५७) अथ पचौरवां शब्द ॥ २५ ॥ अवधू वोत तुरावल राता । नाच वाजन वाज बराता ॥१॥ मौरके माथे दूलह दीन्हो अकथा जोरि कहाता। मड़येके चारन समधी दीन्हो पुत्र विवाहल माता ॥२॥ दुलहनि लीपि चौक वैठाये निरभय पद परभाता । भातहि उलटि बरातहिं खायो भली वनी कुशलाता ॥३॥ पाणि ग्रहण भये भव मंडौ सुषुमान सुरात समाता। कहै कबीर सुनो हो संतो बूझो पण्डित ज्ञाता ॥४॥ अवधू वोत तुरावल राता । नाचै वाजन वाज वराता॥१॥ हे जीवी ! आपतौ अवधू रहेही कहे आपके बचें जो है मायास नहीं रहीं है परंतु रौंरे अब वह तत्त्वमें राते हैं । अथवा हे अवधू ! यह शरीरको राजा हैं जीव सो अब वह तत्त्वमें राता है। कौन तत्त्वमें राता है ? सोकहै हैं जहां बाजन नाचै है, बरातबाजै है । सो इहां शरीर बाजन है सो नाचै है। कहे जाग्रत् अवस्थामें स्थूल, स्वप्नअवस्थामें सूक्ष्म, औ सुषुप्ति में कारण, तुरियामें महाकारण, येई नाचै हैं । तिनको जब इकट्ठा कियो अर्थात् एकाग्र मन कियो उन्मनी मुद्राआदिक साधन करि कै तब पचीसौ जे तत्त्व हैं तेई बरात हैं। तेई बानै हैं कहे तिनको जो संघट्ट दैबो है इंदियनमें तिनते जो ध्वनि निकसै है तेई दशौ अनहदकी ध्वनि सुनि परती हैं तामेंप्रमाण कबीरहीजीको । * उठतशब्द घनघोर शंखध्वनि अतिघना । तत्त्वोंकी झनकार बनतझीनीझना' ॥ १ ॥ मौरके माथे दुलह दीन्हो अकथा जोर कहाता । मड़येके चारन समधी दीन्हो पुत्र विवाहल माता॥२॥ नाभीमें चक है तामें नागिनीको बास है सो चक्रके द्वार में मुड़ दिये परी है। आत्मानीचे है सो वह. आत्मा दुलह है ताहीकी नागिनी मौर है रहीं १७