पृष्ठ:बीजक.djvu/३१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(२६४) बीजक कबीरदास । है । ऐसे साहबके अनूप चरित हैं । अर्थात् जो रहस कहिआये सोङ मन बचनके परे है । सो कबीरजी कहै हैं कि, जोचित्तमें अनुमानकरि देखे तौ यावत् उपासना औ ज्ञान तुम करौ हौ, जगत् मुक्तिरूप माणिक काहूते न मिलेगी । ऐसी मुक्ति के लाभ को लोभत्यागिकै है सब कुटुंब जे गुरुवालोग तिनको त्यागके शारंगपानी कहे धनुषको “न्हे साहब तिनको काहे नहीं भनीही अर्थात भनौ ॥ ३ ॥ ४ ॥ इति सत्ताईसवां शब्द समाप्त । अथ अट्ठाईसवां शब्द ॥ २८॥ भाई रे गैया एक विरंचि दियो भार अभर भो भाई । नौ नारीको पानि पियति है तृषा तऊ न बुताई ॥१॥ कोठा बहत्तर औ लौलाये बज्र केवाँर लगाई। खूटा गाड़ि डोरी दृढ़बांधो तेहिवो तोरि पराई॥२॥ चारि वृक्ष छौ शाखा वाके पत्र अठारह भाई। एतिक लै गैया गम कीन्हो गैया अति हरहाई ॥ ३॥ ई सातौ अवरण हैं सातौ नौ औ चौदह भाई ।। एतिक गैयै खाइ बढायो गैया तौ न अघाई ॥४॥ खुटामें राती है गैया श्वेत सींग हैं भाई ।। अवरण वरण कछु नहिं वाके भक्ष अभझै खाई ॥ ६॥ ब्रह्मा विष्णु खोज कै आये शिवसनकादिक भाई ।। सिद्ध अनंत वहि खोज परेहैं गैया किनहुं न पाई ॥ ६॥ कहै कबीर सुनो हो संतो जो या पद अरथइ। जो या पद को गाइ विचरि है आगे है तरिजाई॥७॥