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पृष्ठ:बीजक.djvu/३६९

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शब्द । (३१९) लोग समाइगये औ सृष्टिमें वह अनहदब्रह्म समाइ गयो सो मानत तो यहहै। किं, सब ब्रह्महीमें समाईहै कहे ब्रह्ल द्वै नाइहै परन्तु निकट पयाना यमपुरहीको धाइबा है अर्थात् आपनेको ब्रह्ममानिकै ब्रह्मनहीं होइहै यमपुरही को चलेजायँहैं तेऊ एकही वाणी बोलैहें कि, एक ब्रह्मही है दूसरा नहीं है । तामें धुनि यहहै कि, अरे मूढ़ एकता ब्रह्म है नरकै कौन जाय ॥ ४ ॥ सतगुरु मिले वहुत सुख लहिया सतगुरु शब्द सुधारै। कह कवीर सो सदा सुखारी जो यहि पदहि विचारै ॥५॥ | हे नवौ! तुमके सतगुरु मिले तो वे राम नाम रूपी पद साहब मुख अर्थ बताइ देई । तौनेको जोतुम बिचारौ तौ बहुत सुख पाव श्रीकबीरजी कहैं ने शब्दनको अनर्थ अर्थ बताइकै गुरुवालोगन बिगारि डारयो है ते जब्द सतगुरु सुधारैहैं काहेते अनर्थ अर्थ खंडन कंरिकै वे वेद शास्त्रादिकन के शब्दके तात्पयर्थं छोड़ाइकै साहब मुख अर्थ बताइदेइहैं । सो जो वा शब्द जो रामनाम ताको जगत् मुख अर्थ बताइ देइहै सो जो कोई राम नामरूपी पद में साहब मुख अर्थ बिचार सो सदा सुखी रहै ॥ ५ ॥ इति सत्तावनवां शब्द समाप्त ।। अथ अट्ठावनवां शब्द ॥५८॥ नर हर लागी दव विकार विन ईधन मिले न बुझावन हारा। मैं जान तोहींते व्यापै जरत सकल संसारा ॥ १ ॥ पानी माहें अगिनिको अंकुर मिल न बुझावन पानी । एक नजरे जरै नौ नारी युक्ति न काहू जानी ॥२॥ शहर जरै पहरू सुख सोवै कहै कुशल घर मेरा। कुरिया जरै वस्तु निज उबेरै विकल राम रँग तेरा ॥३॥ कुविजा पुरुष गले यक लागी पूजि न मनकी साधा । करत विचार जन्म गो खीसा ई तन रहल असाधा ॥४॥