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शब्द । ( ३३९ ) सो जौन साधारण श्वास चलैहै नासिकाते बारह आंगुर भीतर जायहै बारह आंगुर बाहर जायहै जहां जहांते बँभि चंभिकै लौटे है तहां रकार मकार को जपिकै वे आंगुरनको घटाइ बुझे दूनों कुंभकनको घटावनलगै इसतरहते वे जो हैं श्वास ताके बांधतमें जब श्वासके क्रमते घटाइकै तिहुँलाकै वांधे कहे त्रिकुटीमें बांघिदेइ अर्थात् एक आंगुर भीतर जानपावे न एक आंगुर बाहर जानपावै औ एक आंगुर वीचमें राखै सो यहि तरहते जो कोई कौ है सोई उबान नहीं रहै है है संकल्प विकल्प मिटि जाइहै जपकरतमें काहेको उवैग ताको रामनामही तीनों लोक देख परे हैं वोत वाहर नहीं देखपरै है। जहां कोरी बीननको बैठे है। सो करिगह कहावै है नव कपरा वनि चुके तव तहां तीनि घरी करिकै कपरा धरि देइहै औ तानाको दिगमग कहे जहां तहां डारिदेइहै इहां तानि लोकमें फैली जो जीवकी वृत्ति है तःको जहां अपने स्वरूपमें आत्माकी स्थिति है तहां कैवल्यमै राख्यो । तानि आंगुर श्वासा कारकै जो स्मरण करतरह्यो सो मन पवनको एक घर कै दियो तव संकल्प विकल्प सव मिटिगयो यह ताना शरीरमें तन्यो रह्यो ताको दिगमग किया कहे पृथ्वीको अंश पृथ्वीमें जलको अंश जलमे तेजको अंश तेनमें वायुको अंश वायुमें आकाशको अंश आकाशमें मिलाइदियो थे पंच भये औ मनको बुद्धिमें बुद्धिको चित्तमें चित्तको अहंकारमें अहंकार को जीवात्मामें मिलाइदियो ये पांचभये ये सबताना दशौ दिशा में फैलाइ दियो तब याको सुधि भूलगई एक जीवात्माभर रहिगयो औ जब कपरा तैय्यार हैनाइहै तब कोरीके यहां मालिक को पयादा आवै है। तब पयादाके साथ मालिकके यहां कपरा कोरी लैजाइहै औ यहां आदिपुरुष जे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र ते बैठावन देइ हैं कहे याको हंसस्वरूप देइहैं सोई पयादाहै ताके साथ वैकै कहे तामें स्थितāकै कबीर जो मैंह सो वह नोहै कैवल्यरूप ताते छूटि कै पार्षदरूप पाईकै परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्रके लोकको प्रकाशरूप जो है ब्रह्म तने ज्येतिमें समाईंकै कहे वाको भेद परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र धामको गयो भाव यह है जैसे कोरी थान मालिक के नजर कैदेईहै तैसे अपने आत्माको शुद्ध करिकै परम पुरुष पर श्री रामच