पृष्ठ:बीजक.djvu/४४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

९ बीजक कबीरदास । अथ सत्तानबे शब्द ॥ १७ ॥ अल्लह राम जीव तेरी नाई । जन पर मेहर होहु तुम साई ॥ १ ॥ क्या मूड़ी भूमिहिशिरनाये क्या जल देह नहाये। खून करै मसकीन कहावै गुणको रहै छिपाये ॥२॥ क्या भो वजू मज्जन कीन्हे क्या मसजिद शिरनाये । हृदया कपट निमाज गुजारै कह भो मक्का जाये ॥ ३॥ हिंदू एकादशि चौबिस, रोज़ा मुसलम तीस बनाये।। ग्यारह मास कहौ किन टारौ ये केहि माहें समाये ४॥ पूरुब दिशि में हरिको वासा पश्चिम अलह मुक्कामा ।। दिलमें खोज दिलैमें देखो यह करीमा रामा ॥ ५॥ जो खोदाय मसजिदमें बसतुहै और मुलुक केहि केरा। तीरथ मूरति राम निवासी दुइ महँ किनहुं न हेरा॥६॥ वेद किताब कीन किन झूठा झुठा जो न विचारे । सब घट भाइँ एक करि लेवै भै दूजा कर मारै ॥७॥ जेते औरत मर्द उपाने सो सव रूप तुम्हारा ।। कविर पोंगड़ा अलह रामका सो गुरु पीर हमारा ८॥ अल्लह राम जीव तेरीनाई । जन पर मेहर होहु तुम साई १ श्रीकवीरजी कैहै हैं कि, हे श्रीरामचन्द्र ! कोई तुमको अल्लाह कहै कोई रामकहैहै हिंदू मुसल्मान दोउनमें शरीरभेद है जीव तो एकईहै सबमें बिभु चैतन्य तुमहौ । अरु चैतन्यजीव है सो ज्योति तुम्हारी है हिंदू मुसल्मानको आत्मा तुम्हारी है तुमदूनोंके साईहौ ताते तुम्हारे जन जेहै हिंदू तुरुक दोऊ हैं तिनके ऊपर मेहरवानी करौं अर्थात् दयाकरौ ॥ १ ॥