सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बीजक.djvu/४५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

- - ६ ४०६) बीजक कबीरदास । भाव तौ भुवंग देखो अति विविचारी। सुरति सचान देखो मति तौ मॅजारी ॥३॥ अति तो विरोधी देखो अतिरे दिवाना ।। छौ दरशन देखो भेष लपटाना ॥४॥ कहै कबीर सुनो नरबन्दा।। डाइनि डिभ परे सब फंदा ॥ ५ ॥ अब गोरखनाथ के मतके जें नाथ कहावै हैं जे आपने इष्ट देवता को नाथ कहै हैं तिनको कहै हैं कैसे हैं वे कि आप कालते नाथगये अरु औरऊ को कालते नथावै हैं जिनको अपने अपने मतमें है अवै हैं तेऊ कालते नाथे जायेंगे अर्थात् नाथै सोनाथ कहावै अथवा नाथोजाइ सो नाथ कहावै ॥ कैसे कैतरो नाथ कैसे कै तरो, अब बहु कुटिल भरो ॥ १ ॥ श्री कवीरजी कहै हैं कि हेनाथ ! तुम कैसे मुक्त होउगे गोरखनाथ रहे तेत योगऊ करतरहे अबतो योगको नामई रहिगये। मुदा पहिरिलिया वेष बनाइ लिये कप राँगकै अरु नाना प्रकारके मंत्रते भैरव भूतको बशि कैकै सिद्धि देखावन लगे लोगनको ठगन लगे कोई महन्त बनि बैठे कोई राज काज करन लगे कोई राजाके गुरु हैबैठे सो अब तुम बहुत कुटिलता ते भरेहौ ॥ १।। केसीतेरीसेवापूजाकैसोतेरोध्यानऊपरउजरदेखोबकअनुमान | तिहारी सेवा पूना ध्यान करिबो कैसो है कि ऊपरते तो यह जानि पं है। बड़े पुजेरी हैं बड़े ध्यानी हैं बड़ेयोगी हैं औ भीतर कपट ते भरे हैं जैसे बक ऊपरते उजल रहै है औ भीतर कुटिलईते भरे मछरी धरनको ताके रहै है तैसे भीतर बासना भरी है काहूको धनपावै तौ लैलेइ काहूके छरिकाको देखें तौ मूड़ि लेइ काहू राजा को ठगि जागः पावै तौ लैलेइ जातै हमार महंती चलै } २ ॥ भाव तो भुवंग देखे अति विबिचारी। सुति सचान देखो मति तौ मंजारी ॥ ३॥