पृष्ठ:बीजक.djvu/४९०

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(४४२) बीजक कबीरदास । पापपुण्यकै हाथेहिपासा । मारि जगतको कीन्हविनासा१७ येवहनी दोऊ बहान नछाडै।यहगृहजारै वहगृह मा॥१८॥ बैठेते घर शाड्डु कहावै । भितरभेदमनमुसहि लगावै ॥१९॥ ऐसीविधि सुरविप्र भनीजै।नामलेत पचासन दीजै ॥२०॥ ऊँचनीचक हुकहिजोहाराबूड़िगयेनहिंआपुसँभारा॥२१॥ ऊंचनीचहै मध्यमबानी । एकैपवन एकहै पानी ॥ २२ ॥ एकैमटियाएककुम्हारा । एकसवनकासिरजनहारा ॥२३॥ एकचाक वहुचित्र बनायानादविदुके बीच समाया॥२४॥ व्यापीएकसकूलकी ज्योती ।नामधरे क्याकहिये मोती२५ राक्षसकरणी देवकहावै । वादकरै भवपार न पावै ॥२६॥ हंस देह तजि न्यारा होई ॥ ताकी जाति कहै धौं कोई॥२७॥ श्यामसुपेतकि,रातापियरा।अबरणवरणकितातासियरा२८ हिंदू तुरुक कि बूढ़ा बारानारि पुरुष मिलि करौ विचारा२९ कहिये काहि कहा नाहिं मानादास कबीर सोई पहिचाना३० साखी-वहा अहै बहिजातुहै, करगहि ऐचहु ठौर।। समुझाये समुझे नहीं, दे धक्कादुई और ॥ ३१ ॥ सुनहु सवनमिलिविप्र मतीसीहरि बिनवूड़ी नाव भरीसी १ ब्राह्मण वैकै ब्रह्म न जानैं । घरमें यज्ञ प्रतिग्रह आनैं॥२॥ जे सिरजातेहि नहिंपहिचानें।करमभरम लैवैठि बखानै॥३॥ ग्रहण अमावस सायर पूजास्वातीके पात परहु जनि दूजा ४ विपके वर्णनमें हम तीस चौपाई कहै हैं सो सुवन मिलि सुनते जाउ कैसे ब्राह्मण हीतभये कि, जिनको जन्म हरिबिना भरी नाव ऐसी बूड़िगई ॥ १ ॥