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(४६८) बीजक कबीरदास। जैसे सेमरके फलको सुवासेयों चोंच चलायो जब वामें धुवानिकस्यो तब भोजनते ऊन कहे खाली पर भोजन न पायो तब पछितायकै कहे जहड़ि कै. भोजन डहकायकै चल्यो । ऐसे जीव नाना मतन में परिकै मुक्ति चाह्यो जव मुक्ति न पायो तब मुक्ति डहकाइकै संसारमें परयो औ जैसे मदिप कहे मतवार गांठी को द्रब्य दैकै मद् पियो घरौकी अकिल गॅवायदियो तैसे गुरुवा लोगनको गांठी की द्रव्य दैकै मन्त्र लैकै औरे औरे मतनमें लगिगये घरोंकी आकिल गॅवाई दियो कहे साहबको सदा को दास है जीव सो आपने स्वरूपको भूलि गंयो॥२॥ स्वादे उदर भरत धौं कैसे ओसै प्यास न जाईहो । द्रव्यक हीन कौन पुरषारथ मनहीं माह तवाईहो ॥ ३॥ जौने मतमें स्वादपायो सो तौनेही मतमें लग्यो सो ओसते कहूं पियास बुझाइहै। आसपरो सो ओसको जलका स्वाद मुखमें आयो सो कहा स्वादते पेट भरे है नहीं भैरै है तैसे जीव नाना मतमें लग्यो नाना साधन करन लग्यो औ वे देवतनके लोक न गयो अथवा ब्रह्मज्ञान सिद्ध भयो अथवा आत्मज्ञान सिद्धभयो इत्यादिक सब सिद्धि भयो किंचित् सुख पायो तेत असा चाटिबो है कहा मुक्तिहोइ है नहीं होय है औ द्रब्य का हीन जो पुरुषारथ है सो कौन पुरुषार थहै मनमें बहुत विचार करै हैं कि वाको दशहजारदेउं वाको पांच हजार दे जब द्रव्य की सुधि आई सो द्रव्य तो हैई नहीं है तब मनै में तवाई होयहै कि हाय का करीं ऐसे नाना मतनमें लगे पाछे पछिताउ होयहै अन्तकाल में मैं कहा कियो साहबमें न लाग्यो जाते मुक्तिहोती ॥ ३ ॥ गांठी रतन मर्म नहिं जानेहु पारख लीन्ही छोरीहो । कह कबीर यह अवसर बीते रतन नमिलै बहोरी हो॥४॥ | या जीव सदाको साहबको अंशहै सो या रतन तुम्हारे गांठी में है ताको यह राम नामते पारिख करिकै छोरि लेउ साहबके गुण जीवौ में हैं वे बृहत चैतन्यहैं यह अणुचैतन्यहैं वे घन रस रूपहैं या लघु रसरूप हैं ऐसो जो शुद्ध आपनो रूप जनै तौ रतन तेरे गांठीमें है ताको मर्म तुम रामनाम बिना नहीं जान्योकि वा साहब कोहै मन माया ब्रह्मको नहीं है काहेते कि गुरुवालोग तिहारी पारख