पृष्ठ:बीजक.djvu/५२६

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(४८०) बीजक कबीरदास । अथ बारहवां कहरा ॥१२॥ या माया रघुनाथ कि बौरी खेलन चली अहेरा हो । चतुर चिकनिया चुनि चुनि मारै काहु न राखै नेराहो॥१॥ मौनी वीर दिगम्बर मारे ध्यान धरंते योगीहो । जंगल मेंके जंगम मारे माया किनहुं न भोगीहो ॥ २॥ वेद पढ्ता पांड़े मारे पूजा करते स्वामीहो। अर्थ विचारे पंडित मारे बांध्यो सकल लगामीहो॥ ३॥ शृंगीऋषि बन भीतर मारे शिर ब्रह्माके फोरीहो । | नाथमछंदर चले पीठदै सिंहलहूमें बौरीहो ॥ ४॥ साकठके घर कत्ती धर्ता हरि भक्तनकी चेरीहो। कहै कबीर सुनोहो संतो ज्यों आवै त्यों फेरी हो ॥६॥ ज्ञानशक्ति कबीर को जवाब दियो मैं कहा करौं मोको कोई जीवनकै उद्य हेान नहीं देइहै माया सबको बांधि लियो है सो कबीरजी जीवनसों कहै हैं। यह माया छुइ जान न पावै जबहीं आवै तबहीं यासों मुंह फेरिलेउ तबहीं बचौगे या सबको बांधि लियो है तुमहूंको बांधि लेइगी औ इहां रघुनाथकी बौरी जो माया कह्यो सो रघुहै जीव ताके नाथ ने श्री रामचन्द्र तिनकी यो माया है सों जीवनको धरि धरिकै शिकार खेलै है सो जब अपने नाथको या जीव जानै जिनकी यो मायाहै तब तब या मायाते छूटैगो अपने बल ते जीव न छूट सकैगो अवथवा या माया रघुनाथकी बौरी है रघुनाथकी बौरी कहै रघुनाथको न जानिबो यहै याको स्वरूप है १ ॥ ५ ॥ इति बारहवां कहरा समाप्त इति कहरा सम्पूर्ण ।