पृष्ठ:बीजक.djvu/५३६

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(४९०)
बीजक कबीरदास।

। लक्षण नहीं मिलत एकौके लक्षण जो मिलते तो कुमारि न रहती बिआहि जाती याहीते अब तक कुमारि है ॥ १ ॥ जब समुद्र मथिगया लक्ष्मीकढ़ी सों सवदेवमाल हरिको देतभये सो हरि चारिहुयुग सङ्गही राखतभये ॥ २ ॥ यह प्रथमहि पद्मिनिरूपआयाहै सांपिनिसब जग खेदि खाय याबर युवती वेवार नाह। अति तेज तिया है रौनताह ॥४॥ प्रथमतो ब्रह्मजे हैं विष्णु तिनकी नाभिमें कमलिनी है सो लक्ष्मी रूपहै सौं आय अब धन रूप सांपिनि लै संसारको खेदिखाय है ॥ ३॥ या माया बरयुवती है कहे श्रेष्ठ है बार जे लरिका ब्रह्मा विष्णु महेश तेई याके नाह हैं औ ताह कहे तौन जो संसार रूपी रैनि है तौने में अति तेज ॥ ४ ॥ कह कबीर सव जगपियारियह अपने बलकवै रहल मारि५ . सो श्रीकवीरजी हैं हैं कि या माया सबजगत्को पियारिहै आपन बालक जे जीव तिनको मारि रही है अर्थात् सब जीवनको बांधे है जनन मरण करावै है ॥ ५ ॥ इति पांचवां बसंत समाप्त । अथ छठवां बसंत ॥ ६॥ माई मोर मनुष है अति सुजानाधंधा कुटि कुटि करै बिहान । बड़े भोर उठि अँगन बहार। बड़ी खांच ले गोवर डार ॥२॥ बासी भात मनुष ल खाय । वड़ चैला लै पानी जाय ॥३॥ अपने सैंयां बांधी पाट । लैरे वेंचौ हाटै हाट ॥४॥ कह कबीर ये हरिकेकाज । जोइयाके ढिंगर कौन है लाज५ | जीव शक्ति कही है कि, हे माई माया ! मोर मनुष जो मन सो बड़ा सुजान है । धंधा जो बाल पौगंड किशोर ताहीको कूटिकूट कहै कैकै बिहानकहे देहांत कै देइहै । सुजान याते कह्यो कि, मोको नहीं जान देइहै । आपही