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पृष्ठ:बीजक.djvu/५५१

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(५०७) चाचर। विना नेइ को देवघरा मन बौराहो।। | बिन कहगिलकै ईंट समुझ मन बौराहो॥ ३ ॥ | हे मन कारकै बौरा जीव ! जौनेमें शोक संताप अनेक पावै है ते सब ऐसई जगत्को नेहरा समुझिकै जारिदे ॥ १॥ औ या जगढकालबूत जो धोखा ताकी हस्तिनी है अर्थात् झुठो है जौनरूपते देखै जगदीश जो साहब ताको रचो यह चित्रहै सो बिचारिकै छांड़ो । औ या देह कैसीहै जैसे बिना नेइको देवाला है धन कैसो है जैसे बिना गिलावाकी ईट अर्थात् देवालकी नाई यो तन गिरिही जायगो ईट की नाई जैसेईट खरकिनाइहै तैसेतन खरकिहीं नायगो २ । ३ ।। तन धन सों क्या गर्व समुझ मन बौराहो । भसम क्रीमकी साजु समुझ मन बौराहो ॥ ४ ॥ काम अन्ध गज बश परे मन बौराहो । अंकुश सहिया शीश समुझ मन बौराहो ॥ ९ ऊंच नीच जानेहु नहीं मन बौराहो। घर घर नाचेहु द्वार समुझ मन बौराहोः।। ६ ।। सो ऐसे नाशवान् तनधनको क्या गर्बकरै है भस्म औ कीराकी सानु है ।। सेतै जैसे कामत आंधर हैकै हाथी हथिनी वास्ते बँधिकै अंकुश शीशमें सहे हैं। ऐसे तै बिषयको बश परिकै नाना प्रकारके दुःखसँह है ऊंचनीच न पहिचाने द्वार द्वार वागत फिरै है ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६ ॥ मरकट मूठी स्वादकी मन बराहो । लीन्हों भुजा पसारि समुझ मन बौराहो ॥ ७ ॥ छूटनकी संशय परी मन बौराहो । घर घर खायो डॉग समुज्ञ मन बौराहो ॥ ८ ॥ | जैसे मर्कट स्वादके लिये भुजा पसारि चंना लेइहै मूठी नहीं छोड़े है ऐसे हैं मुक्तिके लिये नानामतनमें परिकै दृढ़कैलियो है साहब को नहीं जाने है सो तोको