पृष्ठ:बीजक.djvu/५६०

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(५१६ ) बीजक कबीरदास । तुमतो रामनाममें रमनवारे हौ ई तो सब तुमते पाछे हैं तिनकी ओर जनि हेरौ । माया ब्रह्म कालके पराक्रम आय जो इनके ओर हेरोगे तो ये कालके बूत आय कहै कालके पराक्रमहैं अर्थात् मायै ब्रह्म द्वारा काल नाश सबको कैं देइ है ॥ ७ ॥ सो श्रीकबीरजी कहै हैं कि हेसंती ! साहब कहै हैं सो सुनते जाउ तुम तो राम नाम में रमन वारेही दूरिदूरि कहां खोजौहौ, मतिको ढिगहीमें फैलाव अर्थात् अपने स्वरूपको बिचारु कि मैं कौन को हौं तौ या जानि लेइ हैं कि मैं राममें रमनवारो हौं रामनाम स्मरण करौगे तबहीं मुक्ति होयगई तामें प्रमाण ॥ श्रीकबीरजीको पद । असचरित देखि मन भ्रमै मोर । ताते निशि दिन गुण रमा तोर ॥ यक पढ़हिं पाठ यक भ्रम उदास । यक नगन निरंतर रह निवास ॥ यक योग युक्ति तिन होहिं खीन । यक राम नाम सँग रहल लीन ॥ यक होहिं दीन यक देहिं दान । यक कलपि कलपि कै होयँ हरान ।। यक तन्त्र मंत्र औषधीवान । यक सकल सिद्धि राखें अपान ॥ यक तीरथ ब्रत कार काय जीति । यक राम नाम करत प्रीति ॥ यक धूम घोटि तन होहिं श्याम । तेरी मुक्ति नहीं बिन राम नाम । सतगुरु शब्द तोहि कह पुकार । अब मूल गहा अनुभव बिचार ॥ मैं जरा मरणते भयउँ थार । मैं राम कृपा यह कह कबीर ॥ ८ ॥ इति बेलि समाप्ता।