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पृष्ठ:बीजक.djvu/६२३

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साखी । (५८६ ) जाना नहिं बूझा नहीं, समुझि किया नाहं गौन ॥ अन्धेको अन्धा मिला, राह बतावै कौन ॥१८॥ मनमायादिक जो जगहै ताको न जान्यो कि यह जड़ है मैं इनको नहीं हौं इनते भिन्न वा ब्रह्मको न बुझ्यो बिचारई करत रहिगये अपने स्वरूपको न जान्यो कि मैं साहबको अंशहौं समुझिकै नाना मतनमें गौन न किये कि ये नरक लैजानवारे हैं सो धर जे जीव तिनको आँधरै गुरुवालोग मिले साहब के यहाँकी राह कौन बतावै ॥ १५० ॥ जाको गुरु है आँधरा, चेला कहा कराय॥ अंधे अंधा ठेलिया, दोऊ कूप पराय ॥ १८१॥ याको अर्थ स्पष्टही है ॥ १५१ ॥ मानस केरी अथाइया, मति कोइ पैठे धाय ॥ एकइ खेते चरत हैं, बाघ गहरा गाय ॥ १२॥ या संसार में मनुष्यकी अथाई है तामें धाय कै कोई मति पैठे काहेते कि एकइ खेत जो है संसार तामें बाघ जो है जीव औ गदहा जो है मन औ गाय जो है माया सो एकई संग चरै हैं गदहा मनको कह्यो सो कर्मको बोझा याहीमें लादिजायहै औ जीव बाघहै समर्थ जो साहब को जानै तौ गायजो है माया ताको खायजाय अर्थात् नाशकर देइ ॥ १५२ ।। चारि मास घन वरसिया, अति अपूर्व शरनीर ॥ पहिरे जडतर बरूतरी, चुभे न एक तीर ॥ १५३॥ कबीरजी कहै हैं कि घन जाह मैं सो चारि मास जेहैं चारियुग तामें अतिअपूर्व जो है शरकहे बाणरूपी नीरज्ञान ताकेा बरसत भयो कहे उपदेश करतभयो सबजीवनको परन्तु ऐसो जड़तरकहे जड़ौते जड़ बख्तर पहिरे है कि तीरकहे एकौ ज्ञान नहीं चुभै है अथवा चारिमाप्त हैं चार वेद ते घनकहे बहुतज्ञानकी बष कियो कहे सवजीवनको उपदेश किया परन्तु साहब को