पृष्ठ:बीजक.djvu/६२५

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साखी । (६८७) शुरु सिकिली गर कीजिये, मनहि मसकला देइ ॥ शब्द छोलना छोलिके, चित दर्पण करिलेइ ॥१७॥ जो कहौ मनते हम कौनी भाँतिते भिन्नहाई तौ गुरु सिकिलीगरहै आत्मा तरवारि है मनादिकनकी काटनवारी है तामें साहबको ज्ञानरूपी मसकलादै रामनाम छोलनाते अज्ञानरूपी मुरचाछोलि प्रेमकी बाधिरि मनादिकनके काटिबेको समर्थ करिदेइ अर्थात्चरिउ शरीरका छोड़ि स्वरूपरूपी दर्पण में आपनो हंसशरीर जानिलेइ कि मैं साहबको अंशहौं ॥ १५७ ॥ मूरुखके ससुझावते, ज्ञान गॉठिको जाय ॥ कोइला होइ न ऊजरो, नौ मन साबुन खाय॥१८॥ यहसाखी को अर्थ प्रसिदै है ॥ १५८ ॥ मूढ़ करमिया मानवा, नख शिख पाखर आहि ॥ बाहनहारा का करै, वाण न लागै ताहि ॥ १९॥ मूढ़कर्मी कहे मूढ़ है औ कर्मी है कर्म त्यागको उपाय नहीं करै है ऐसो जो ह मानुष्य सो नखशिखढ अज्ञानरूपी पाखरपहिरे है । औ जो मूढ़कर्मी पाठहोय तौ बानरकी नाई बाँध्यो है हठ नहीं छोड़े ॥ १५९ ॥ सेमर केरा सूवना, सिहुले बैठा जाय ॥ चोंच चहोरै शिर धुनै, यह वाहीको भाय ॥ १६० ॥ सेमरको सुवा जोसिहुले कहेमदारे में बैठिकै चोंच मारयो जब घुवा निकरयोतब शिर धुनै है या कहै है कि या वहीको भाई है अर्थात् जीव संसार मुख लागिरह्या जब कुछ न पाया तब ब्रह्म सुखमें लग्यो कि मोको ब्रह्मानन्द होयगो सो वही विचार करत जब अठई भूमिकामें गयो तब अनुभवौ न रहिगयो तब जान्यो कि जैसे संसारी सुख मिथ्या है तैसे ब्रह्मसुखौ मिथ्या है कुछ नहीं रहि जाय है अथवा घरछोड़िकै बैरागी भये महन्ता लिये मठ बाँधे चेला भये सो घरमें एकै मेहरी रही एकै बेटा रहा इहां बहुत चेली भई बहुत चेला भये