पृष्ठ:बीजक.djvu/६६९

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साखी। (६३१ ) बसै कौन ? पिण्ड औ ब्रह्मांड कौन? आत्म परमात्म कौन ? जरा मरण काल कौन ? गुरु शिष्य बोध कौन ? क्षर अक्षर निरक्षर कौन ? तबकबीरजीबोले । |नाद बिंदु योग स्वप्न, जीव ईश्वर भोग स्वप्न, भौमी अवतार स्वप्न, निराकार स्वप्न है । पाप पुण्य करै स्वप्न वेद औ बेदान्त स्वप्न बाचा औ अबाचा स्वप्न चंद्र सूर स्वप्न है ॥ इत्यादिक बहुत बाक्यहैं ॥ २८६ ।। नौका यह राज्य है, नफरक वरतै छैक । सारशब्द टकसारहै, हिरदयमाहिं विवेक ॥ २८७॥ नष्टजो है धोखा ताहीको यहराज्यहै अर्थात् अहं ब्रह्मास्मि कहिकै सब नष्टभये औ नफरजो है काल ताही को छेक संसार बरत रह्यो है अर्थात् सब संसारको काल छेकछाक खाये जायेहै सारशव्दने रामनाम टकसार ताका हृदय में कोई कोई विवेक करतभये अर्थात् कोई साहेबको न जानतभये संसारते न छूटतभये ॥ २८७ ॥ दृष्टमान सब बीनशै, अद्दलखै ना कोइ ॥ हीनकोइ गाहकमिलै, बहुतैसुख सो होइ ॥२८८ ॥ जहांभरदृष्टमानहै सो सबबिनशै है नाशहोयहै औ मनबचन के अगोचर जो ब्रह्लहै ताकतौ कोई देखते नहीं है धोखही है सो दृष्ट अदृष्ट के परे हीन कोई कहे कोई हानहोइ अर्थात् दान होई ताको गाहक ऐसे जे साहब श्रीराम चन्द्रते मिलैं जो जीवको तो बहुतसुख सो होय अर्थात् जननमरण छुटिजाय साहबके समीप सेवामें बनारहै तामें प्रमाण ॥ गोसाईजीकोदोहा ॥ * पदगहि कहति सुलोचना, सुनहु बचनरवुवीर ॥ तुमहिं मिले नहिं होइ भव, यथा सिन्धुकरनीर ॥ २८८ ॥ दृष्टिहि माहिं विचार है, बूझै बिरला कोइ ॥ चरमदृष्टि छूटै नहीं, ताते शब्दी होइ ॥ २८९॥ जोकहो साहबको देखै कैसे हैं तौ दृष्टिही में बिचारहै साहब को देखै है। या चर्मदृष्टिकरिकै साहबको नहीं देखै या बात कोई बिरला बुझै है या जीवकी