पृष्ठ:बीजक.djvu/६७१

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साखी । | (६३९) येमरजीवाअमृतपीवा, काधसिमरैपताल ॥ गुरुकीद्यासाधुकीसंगति, निकसिआउ यहिकाल३०१ ये मरजीवी कहे हैं तो अमृतको पीवनवारो पातालमें धसिकै कहे संसार में परिकै कहामेरै है औ जियै है नरकको चलानाइ है सो गुरूकी दयातें साधुनकी संगतिते तू यहाकाल में संसारते निकसिआउ.जो तें साहबके जाननवारे साधुनकी शरणहोइ वाही चालचलै ॥ ३०१ ॥ केते बंद हलफे गये, केते गयो विलोइ ।। एक बुंदके कारणे, मानुष काहेको रोइ ॥ ३०२॥ हा इति कष्टमें है सो कबीरजी कहै हैं कि हाय केतन्यो जीव लफेकहे नैगये अर्थात् दरकि गये अर्थात् साहबके मार्गचले साहबकी उपासनाकिया पै गुरुवाळोग जो नानामत लखाया तिनहींमें लफेकहे नैगये सो केतौ तौ याभकारसों गये औ केतौ पहिलेहीते बिगोयगये कहे बिंगरिगये सो हे मानुष! श्रीरामचन्द्रको जो आनन्दसमुद्र ताके एकबुन्दके कारण हे संसारीजीव ! तें काहेरोवै. है धोखाब्रह्मको छांडि साहबको जानु जाते जननमरणछूटै ॥ ३०२ ॥ आगिजो लगीसमुद्रमें, टुटिटुटि खसै जो झोल॥ रोवै कबिरा डिम्भिया, मोरहीरा जरै अमोल॥३०३॥ या संसारसमुद्रमें अज्ञानरूपी आगिलगी कर्मरूप झोल ने शरीरके कारणहैं। ते या देहते टुटिटुटि वा देहमें गये या देह जारगई याही रीतिते नानादेह धेरै हैं संसार नहीं छूटेहै सो कबीर जी रो वै हैं कि दम्भावैकै मोर अमाल हीराजीव ते अज्ञानरूपी अग्निमें जरेजाय ॥ ३०३ ॥ साँचे शाप न लागिया, साँचे काल न खाय ॥ साँचेसाँचे जो चलै, ताको कहा नशाय ॥ ३०४}} । कबीरजी कहै हैं कि दम्भकरिकै काहे अज्ञानरूपी आगिमें जरे जाउहौ जोसांचे साहबमें लगिकै सांचे साधुहोउ तौ वे सबते जबर होइनैं न वाकेशापलागै न वाकोकाल खायहै सो जाम्बवंतहनुमानादिक अबतकबने हैं ॥ ३०४ ॥