पृष्ठ:बीजक.djvu/७४२

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( ७१४ ) बघेलवंशवर्णन । सो आगूलै उच्च जो कुरसी । बैठाया तामें अति हुलसी ॥ विविधभांति कीन्ह्या सत्कार । से कहँलों कवि कैरै उचारा ॥ बड़कीमतिको उभय दुनाली । देत भयो शत्रुनको शाली ॥ फेरिलाट असि गिरा उचारी । ईजा लही आप मग भारी ॥ यहि पुर होत कलैते कामा । याते कलकत्ताहै नामा ॥ बै चारिक चलि और विशेषी । लेहिं आपहू आंखिन देखी ॥ दोहा-पाँचलाख मुद्रा नितहिं, बनत कलैते ख्यात ॥ तूल सूत बिनिबो वसन, होत कलेते व्रात ॥ २३०॥ शहर फनूस बरै बुतै, निशि कलते यक साथ॥ इत्याधिक बहु औरऊ, निरखि नंद विश्वनाथ ॥ ३१ ॥ कह्यो लाट साहेब सों जाई । यहि पुर कला अपूर्व लखाई ॥ तकन तोपखानै पुनि भूपा । गये लखे युग तोप अनूपा ॥ रहैं अठारै पंनी केरी । तिनहि सराहतभो नृप ढेरी ॥ सो यक मनुज लाटसों कहेऊ । लाट खुशी है हुकुमहि दयऊ । महाराज ऐसी युगतोपा । तुमहिं देतहैं हम भरि चोपा ॥ अहैं प्राग सो लेव मॅगाई । दिये देत हम अहैं रजाई ॥ दैशत फेरि तिलंगन काहीं । पथरकला दीन्ह्यो सुखमाहीं ॥ पुनि कह तु दिवान सरदारा । वार बड़े अरु सुघर अपारा ॥ दोहा-बहुत रोज आये भये, अहै रुजी यह देश । याते अब निज पुरीको, कीजै गमन नरेश ॥ ३२ ॥ लाट वचन तब भूप सुनि, है दुत रेल सवार ॥ मग नृप बहु सन्मान लहि, आयो पुरी मॅझार ॥ ३३ ॥ दंडहु भरको हुकुम नहि, तहँ असि लै सब ठाम।। इनके जन वागें वर्चे, और कसूरी नाम ॥ ३४ ॥ अरज़कियो जी लाट साँ, सो सब पूरण कीन ॥ कह्यो अपना राज्यमें, करो जो चहो प्रवीन ॥ ३५॥