(१०८ ) वासना में सुख के लिये अनुयोग करनी। यह अंत अत्यंत हीन, ग्राम्य, अध्यात्म मार्ग से पृथक् करनेवाला, अनानं और अनर्थ- सहित है । दूसरे शरीर को क्लेशं देकर दुःख उठाना । यह भी अनार्य और अनर्थसंहित है। हे भिक्षुओं ! तथागत अर्थात् मैंने इन दोनों अंतों को त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा वा मोर्ग को जाना हैं । यह मध्यमा' प्रतिपदा चक्षु देनेवाली और ज्ञानप्रदायिनी है। ईससे उपशम अभिज्ञान, संवोधन और निर्वाण प्राप्त होता है। हमे भिवंसवे अन्ता पम्पषितेनं न संवितव्या । फतने ? यो चार्य कामे कामसुखत्यिकानुयोगी होनो गम्मो पोयुजनिको परिवो अनत्य- संहितो पो पायं प्रच कितमसायोंगो दुक्खो अनरियों अनंत्यसहित । रवि खो मिक्ख प्रमों में अनुपंगम्म ममिमा पंटिपैदों यांगतेने श्रभिसंधुद्धा पखु करणी माणकरणी उपसनाव अभिनाय सम्बोधाव निधानाय संघन्ति । कमां पं सा निक्र्सवे मज्झिमा पंटिपदा तथागतेन मिसवुद्धा पक्खुकरणी, माणकरको, उपसमाय, अनिष्टावं, संयोधाय निष्पानाव संवत्तचि? श्रवमेव अरियो भट्ठगिको भग्गी। सेय्वयेदं -सम्मादिहि', सम्मासंकल्पो, सम्मावापा, सम्माक्षम्मतो, सम्माधाजीवो, सम्मायायामो सम्मासति, सम्मासमाधि। धर्व खो मिक्खये मज्झिना पटिदा तथागतेन अभिसम्युद्धा चक्षुकरणी जाएंकरणी उपसमाव अमिमा संयोधार, निध्यानाथ संवत्तति । इदं खो पन भिक्खवे दुपवं धरियसच्चं । पाविपि दुर्द,जरापि टुक्तो ध्याधिपि टुक्खो, भरणीप दुक्खो, पियेभिर्सपयोगों दुक्खो, पियेमिवि- होगो दुक्खा, पिच्छतं न लभंति तपि दुखं, खिचेन पंपीपादानपख- घोपि शुक्स। इदं खो पन भिक्णवे दुक्खससुदयं शरियसंध्यं पापं तरहापानेमविका नन्दिरागसहगता वत्रवत्राभिनन्दिनी। संबंधेदं कामतपदा, शिनपंतगही।
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