(२५) ग्यारहवाँ चातुर्मास्य श्रावस्ती में थोड़े दिन रहकर नंदापनंद और वक को उपदेश कर वसंत ऋतु में भगवान बुद्धदेव राजगृह गए और वहाँ ग्रीष्म ऋतु व्यतीत कर वर्षा ऋतु के आगमन के पूर्व राजगृह से दक्षिण दिशा के पर्वत के नाडक ग्राम में गए । नाडक प्राम राजगृह से तीन गन्यूति (जितनी दूर तक गौ की आवाज जाती है) से दूनी दूरी पर था और इस ग्राम में ब्राह्मणों की वस्ती थी। एक दिन भगवान् बुद्धदेव पूर्वाह्न के समय अपना मिक्षापान और चीवर उठाकर गाँव में भिक्षा के लिये गए । उस दिन उस गांव में भारद्वाजगोत्रीय एक ब्राह्मण के यहाँ सीतायाग था। भगवान बुद्धदेव कृपक भारद्वाज के यहाँ भिक्षा के लिये गए { भारद्वाजने, उन्हें भिक्षा के लिये वैठे देखे, कहा-“हे श्रमण ! मैं तो जोतता हूँ, बोता हूँ तब मुझे खाने को मिलता है, आप भी क्यों जोत बोकर नहीं खाते ? " गौतम बुद्ध ने कहा- हे ब्राह्मण ! मैं भी जोत वोकर खाता हूँ।" ब्राह्मण ने यह सुन विस्मित हो हँसकर कहा-" गौतम ! मेरे यहाँ तो जूत्रा, हल, फाल, बैल आदि कपि की सामग्रियाँ हैं, पर आपके पास तो कुछ भी नहीं है । फिर आप कैसे जोत वो कर खाते हैं ? मैं आपको कैसे कृषक मानूं ? आप तो भिक्षुक देख पड़ते हैं।" भगवान ने भारद्वाज से कहा- . : ___"भारद्वाज, मेरे पास श्रद्धा का वीज है, तप, तुष्टि और प्रज्ञा मेरा जूआ और हल है, ही की हरिस, मन की जोत, और स्मृति की
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