( २०४ ) दी थी, राजकुमार के हाथ में दिया गया। उसे पढ़ते ही अजातशत्रु पितृशोक से व्याकुल होकर रोने लगा और सारा अानन्द भूलं गया। उस समय उसने अपने किए पर बड़ा पश्चात्ताप किया और वह दौड़ा हुआ श्मशान पर गया । अपने पिता के शव का दाह उसने अपने हाथों किया। उस समय से अजातशत्रु को सारे संसार का सुख, राज्य और ऐश्वर्य फीका मालूम पड़ने लगा। भगवान बुद्ध- देव अपना सत्ताइसौँ चातुर्मास्य समाप्त का श्रावस्ती से भ्रमण करते हुए इसी बीच राजगृह में गए । देवदत्त जब कई बार महात्मा बुद्धदेव के प्राण लेने के प्रयत्न में कृतकार्य न हुआ तो उसकी चिंता . घढ़ती गई और उसे राजयक्ष्मा रोग हो गया । उसको यह दशा देख अजातशत्रु को और भी भय हुआ राजकार्य में उसका चित्त नहीं लगता था । निदान मंत्रिगणाजीवक से परामर्श कर अजातशत्रु को भगवान् बुद्धदेव के पास ले गए । वहाँ भगवान् बुद्धदेव अपने शियों. को उपदेश कर रहे थे। अजातशत्रु भगवान् बुद्धदेव के पास गया और वहाँ वह उनके उपदेशों को कई दिन तक निरंतर श्रवण करता रहा जिसका फल यह हुआ कि उसको आत्मा को शांति प्राप्त हुई और उसने बौद्ध-धर्म स्वीकार किया। : . .. ... - देवदत्त ने जब यह देखा कि अजातशत्रु महात्मा बुद्धदेव कां' भक्त हो गया, तब उसे और भी अधिक चिंता हुई और वह दिनो दिन क्षीण होने लगा। उसने कई वार चाहा कि भगवान बुद्धदेव से क्षमा प्रार्थना करे, पर भगवान बुद्धदेव उसके मिलने से.सदा किनारा करते रहे।
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