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पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/२२९

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(२१६ ) 'धर्म समझा दिया है । मैंने तुम लोगों से काई विपय गुप्त नहीं रखा है। तुम लोग धर्म हो का आश्रय ग्रहण करना । धर्म का प्रदीप प्रज्वलित करना । किसी दूसरे का भरोसा मत करना । अपना अपना भरोसा रखना । हे आनंद ! मेरे परिनिर्वाण के बाद जो लोग धर्म का आश्रय लेंगे, धर्म का प्रदीप प्रज्वलित करेंगे, मुक्ति । की प्राप्ति के लिये अपने ऊपर भरोसा रखेंगे और दूसरे का अव- लंब न हूँदेंगे, वे ही भिक्षगणों में अग्रगण्य होंगे।" ___ चातुर्मास्य की समाप्ति पर महात्मा बुद्धदेव वैशाली गए और चापाल चैत्य में ठहरे । वहाँ भगवान बुद्धदेव ने आनंद से अष्टवि- मोक्षसोपाण का उपदेश किया। भगवान ने कहा-"हेआनंद ! (१) मन में स्प ** भावना विधमान होने से वाह्य जगत् में रूप दिखाई पड़ना विमोक्ष का प्रथम सोपान है, (२) मन में रूप भावना विद्य- मान न रहने पर भी वाह्य जगत् में रूप दिखाई पड़ना द्वितीय सोपान है, (३) मन में रूप भावना विद्यमान न होना और बाह्य । जगत् में भी रूप दिखाई न पड़ना तृतीत सोपान है, (४) रूपलोक को अतिक्रमण कर के 'अनंत आकाश' की भावना करते हुए 'आकाशानंत्यायतन' में विहार करना चतुर्थ सोपान है, (५) आकाशानंत्यायतन का अतिक्रमण करके 'अनंत विज्ञान' की भावना करते करते 'विज्ञानानंत्यायतन' में विहार करना पंचम सोपान है, (६) विज्ञानानंत्यायतन का अतिक्रमण करके 'श्र

  • या कप शब्द उपलणार्य है। रूप से यह कप,ब्द,गंध, रस,स्पर्श

और धर्म नामक पो दन्द्रियों के विषय का ग्रहण धाभिप्रेत है।