(२४३)
सम्मा-सो लोके परिव्वजेय्य ।।
वचसा मनसा च कम्मना च
अविरुद्धा सम्मा विदित्वा धम्मं ।
निव्वाण पदाभिपत्ययातो
सम्मासो लोके परिब्बजेय्य ॥
लोभं च भयं च विप्पहाय
विरतो छेदन-बंधनातो भिक्खु
यो तिरुण कथंकथा विसल्लो
सम्मा सो लोके परिब्बजेय्य ॥
जो मानुष्य और दिव्य रोगों को त्यागकर संसार को अतिक्रमण कर धर्मो का संग्रह करके भैक्ष्य-चय्र्या करनेवाला है, वही सब लोकों में परिव्रज्या वा संन्यास ले सकता है। जिसके मन,वचन और कर्म अविरुद्ध हैं, जो सब धर्मों को जान गया है, जो निर्वाण के मार्ग का अनुगामी है, वही संन्यास का अधिकारी है। जिसने लोभ और भय को त्याग दिया है, जो भिक्षु छेदन और बन्धन से विरत है, जो कथंकथा को पार कर गया है, जो वेदना-रहित है, वही संन्यास का अधिकारी है। ऐसे ही अधिकारी पुरुष को भगवान बुद्धदेव वेदज्ञ मानते थे। उनका कथन है---
वेदानि विचेय्य केवलानि
समणानं याति ब्राह्मणनं
सव्वा वेदनासु वीतरागो
सब वेदमनिञ्च नेदगू सो॥