सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लगे हैं। सब लोग निद्रादेवी के वशीभूत हैं। केवल सिद्धार्थ कुमार एक कोने में बैठे अपने निकलने की चिंता में लगे हैं। भगवान् कुमुदिनी-नायक गगन-मध्य में आए हैं;मानों कुमार को यह संकेत कर रहे हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक और परिणामी है, धीर पुरुष संसार से चित्त हटाकर ब्रह्मानंद की जिज्ञासा में निरत होते हैं। अचानक कुमार की आँख ध्यान से खुली । उन्होंने देखा कि सब लोग सो गए हैं और ऐसे सोए हैं कि किसी को कुछ सुध नहीं। उन्हें वह रंगभूमि श्मशान सी दिखाई पड़ी। उन्होंने देखा कि उन स्त्रियों की जिनका रूपसौंदर्य्य देख स्वर्ग की अप्सराएँ भी लजाती थी, अद्भुत दशा हो रही है। किसी के वस्त्र उड़ गए हैं, कोई नंगी पड़ी है, किसी के सिर के बाल खुले पड़े हैं, किसी के मुँह से लार वह रही है, किसी का मुँह खुला और दाँत निकले हैं, कोई उलटी कोई सीधी, कोई किसी के ऊपर सिर और कोई किसी के ऊपर पैर रक्खे सव नहाँ की तहाँ मृतवत् पड़ी हैं । यह देख कुमार केचित्त में स्त्रियों से बड़ी घृणा उत्पन्न हुई। उन्होंने करुणा से ठंढी साँस ली और कहा-" कितने शोक की बात है कि मनुष्य इन स्त्रियों से प्रीति करता है। भला इन राक्षसियों के प्रेम में आनंद कहाँ"। यह कहकर वे वहाँ से उठे, अपने प्रासाद में आए और उन्होंने अपने प्रिय सारथी छंदक को बुलाया । कुमार की आज्ञा पाते ही छंदक उपस्थित हुआ ! कुमार ने छंदक से कहा- "छंदक मेरे प्रस्थान

  • इंदकाह खलु मा विलय है अंश्वरान दद में अलंकृतं ।

सर्वसिद्धि भम रति मंगला-पर्वसिद्धि भूवमेदामेष्यति ।