( ५९ ) हे छंदक ! अपरिमित अनंत कल्प तक मैंने नाना प्रकार के दिव्य.और मानुप रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इत्यादि काम- सुखों का भोग किया, पर मुझे तृप्ति नहीं हुई। मनुष्य कभी अपनी कामना को विषय-भोग से तृप्त नहीं कर सकता। कामना दहकती हुई आग है। इसे यदि विषय-भोग के घी से कोई बुझाना चाहे तो यह कभी नहीं बुझेगी, किंतु उलटे अधिक प्रदीप्त होगी। ज्ञानी पुरुष साँप का सिर छोड़ देता है और अशुचि मैले के घट को नहीं छूता । छंदक : काम सव सुखों का नाशक है, यह जानकर काम की ओर मेरी रुचि नहीं होती। हे छंदक, यह संसार घोर जंगल है, इसमें चारों ओर क्लेश ही क्लेश है । हम लोग मोह और अविद्या के अंधकार में पड़े हुए हैं, ज़रा, व्याधि और मृत्यु के भय से पीड़ित हैं, जन्म-मरण दुःखरूपी शत्रुहमारे पीछे लगे हैं। मैंने इस- संसार के दुःखों को अच्छी तरह अनुभव किया है और प्रतिज्ञा करता हूँ कि- तदात्मनोत्तीर्य इदं भवार्णवं सवेरदृष्टिग्रहक्लेशराक्षस। . -- स्वयं तरित्वा च अनंतकं जगत् स्थलेऽन्तरिक्ष अजरामरे शिवे। .. मैं इस भवार्णव को जिसके साथ वैरदृष्टि.ग्रहक्लेश रूप राक्षस लगे हैं, अवश्य पार करूँगा । और मैं केवल अकेला ही पार,न
- विवर्शिता सशिरावया पुगिर्हिता मीढघटा वयाधिः।
. विनाशका: सर्वसुखस्य छैदक ज्ञात्वाहि कानात्व विधावते रवी.. ललितविस्तर ०:१५