थोड़ी दूर चलकर कुमार के चित्त में फिर भी यह यह आशंका हुई कि यद्यपि मेरे शिखा नहीं है और मैंने राजोचित वस्त्राभूपणों का भी परित्याग कर दिया हैं, फिर भी जो वस्त्र मेरे शरीर पर हैं वे रेशमी और बहुमूल्य हैं, जिन्हें साधारण मनुष्य नहीं पहन सकता। संभव है कि मुझे कोई इन वस्त्रों में देखकर पूछताछ करे और मेरा पता महाराज शुद्धोदन को पहुँचावे। वे इसी विचार में जा रहे थे कि दूर से उन्हें आगे एक.लुब्धक (ठग) देख पड़ा जो साधु की तरह कपाय वस्त्र पहने राह में बैठा हुआ था। कुमार जव लुब्धक के पास पहुँचे तब उससे वोले-"आइए, हम और आप अपने कपड़े बदल लें ।" कुमार की बात सुन लुब्धक ने कहा-"आपका वस्त्र आप को शोभा देता है और मेरा कपाय- वस्त्र मुझे शोभा देता है। मैं वस्त्र-परिवर्तन नहीं करूँगा।" कुमार ने कहा-" यदि आप बदलेंगे नहीं तो मैं आपसे आपका कपाय वस्त्र माँगता हूँ । क्या आप माँगने पर भी न देंगे?" इस प्रकार कुमार ने अपने सारे वस्त्र उतार, उस लुब्धक को दे उसके दिए • कपाय वस्त्र पहन आगे का रास्ता लिया। . . . प्रातः काल कपिलवस्तु में जब लोग मोह-निद्रा से जागे.तो सिद्धार्थ कुमार को वहाँ न पा चारों ओर उन्हें प्रासाद में ढूंढने लगे । जब वहाँ भी वे न मिले तब लोगों को कंठक और छंदक को न देख विश्वास हो गया कि कुमार गृहत्याग कर कहीं चले गए। "* महावान के अर्थ में इसे देवता लिखा है, और कपाय वस्त्र के स्थान पर मृगधर्म लिखा है। -2
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